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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२४७

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संक्राज्य । (T : पदों और साथियों के ही माध्यम में अपने उपदेश देते रहे हैं फिर भी उनको भ! उनके श्रादर में कुछ भिन्न हो गई थी और इस दृष्टि में कुछ अंतर भी अब हमें लग : ग्रु : नानक देव की रचताओं पर कि म प्रधकार पंजीयन व : प्रभाव पड़ा उसी प्रकार दयाल की बानियों पर भी राजस्थानी भाप की छाप छप्ट दीख पड़ी और यह नियम अन्यत्र न के बने में T प्रचलित हो गया । यह विशावनई पहल न तो प्रावि तुग के उड़ियवामी संत जदेत्र के पदों में लक्षित होनी थी अर न मतगण नामदेव की हों :नियों में उतदा दूर तक प्रकट हुई थी और उस समय की रचनाओं में इस विव, में बहुन कम अंतर जन पड़ा था 1 मध्यु के पिछले डेढ़ दो वर्षों म कुछ अन्य प्रत्रार की विशेषन:एं भी आ गई है ये कि इसके उनादें जो रचनाओं प्र । म ाम एड्रग: । संत जंभनाथ मंग जंभाजी, संस० १५०८ (विक्रम की भादो वदि ८ को, जोध पुर के अंतर्गन, नागोर इलाके के गाँव में उत्पन्न हुए थे । पयासर इनका पतृल पटमार राजधुनों का था और वे अपनी माता की एक मात्र संतान थे : प्रसिद्ध है कि ये अपने प्रायः ३५४ वर्षों की अवस्था तक एक शब्द भी नहीं बोला करते थे और अपने चमत्कारों के ही कारण, ये ‘अचंभा ’ शब्द में जंजो ब्रह्लाये थे 1 इनकी शिक्षादीक्षा का कुछ पता नहीं चलना, किन्तु इनकी रचनाओं में इनकी गंभीर साधना का प्रभाव लक्षिन होता है । ये अपनी योगसंबंधी पहुंच के कारण ‘मुनीन्द्र जम्भ ऋषि' नाम से भी प्रसिद्ध है और इनकी अनेक बानियों पर नाथ पंथ के हठयोग का भी प्रभाव है। । इन्होंने कदाचित् राजपूताने से बाहर जाकर भी अपने उपदेश दिये थे । और अपने मत का नाम ‘विश्नुई संप्रदाय' का सिद्धांत रखा था। । इनके अनुयायी, राजस्थान प्रांत के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश के बिजनौर, बरेली तथा मुरादाबाद जिलों