शताब्दी के उत्तरार्द्ध काल में हुआ जब कि उन्होंने अपने कतिपय
विचारों को स्वतंत्ररूप में प्रकट करना आरंभ किया। स्वामी रामानंद, रविदास एवं पीपा आदि संत भी प्रायः एक समान ही भावों
द्वारा अनुप्राणित थे और इस नवीन संतमत के प्रचार में प्रायः
सभी का सहयोग लगभग एक ही प्रकार का रहा। कबीर साहब साधारण
जन समाज में उत्पन्न हुए थे और उन्हें धन-संपन्न व्यक्तियों अथवा विद्या-व्यसनियों के संपर्क में आकर अपना जीवन विकसित करने का भी
कभी अवसर नहीं मिला था। परंतु वस्तुस्थिति को परखने, उसका
उचित मूल्यांकन करने तथा व्यापक रूप से विचार करते हुए उसके
अनुसार अपने सिद्धांत निर्धारित करने की उनमें अनुपम शक्ति थी।
किसी धर्मग्रंथ, संप्रदाय अथवा वर्ग विशेष का आश्रय न ग्रहण करते
हुए भी वे अपने मंतव्यों पर सदा दृढ़ रहे और उन्होंने उसका पूरी
निर्भीकता के साथ प्रचार किया। उन्होंने सभी प्रचलित धर्मों के
मूल सिद्धांतों के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की, किन्तु उसके बाह्याचारों को गौण स्थान दिया। वे थोथी विडंबनाओं के प्रबल विरोधी
थे और सत्य या ईश्वर के नाम पर ढोंग रचने का स्वार्थ साधन करने
वालों को खरीखोटी सुनाने में कभी नहीं रुकते थे। उनकी सारी
बातें निजी अनुभवों के आधार पर आश्रित थीं और दूसरों के भी निजी
अनुभव को ही अपनी कसौटी के लिए लक्ष्य बनाती थीं। अतएव
उनके हृदय की सचाई के प्रति विश्वास का होना अंसभव न था और
धीरे-धीरे सभी उन्हें श्रद्धा एवं सम्मान की दृष्टि से देखने लगे।
प्रसिद्ध है कि कबीर साहब ने स्वामी रामानंद (सं॰ १३५५-१४६७) को अपना दीक्षा गुरू स्वीकार किया था। संत रविदास, सेन, पीपा, धन्ना आदि उनके गुरुभाई थे। उक्त स्वामीजी के ही उपदेशों से प्रभावित हो कर इन सभी लोगों ने संत-परंपरा का आरंभ किया था। परन्तु इसके लिए कोई स्पष्ट तथा ऐतिहासिक प्रमाण