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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२५०

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मध्ययुग (पूर्वार्द्ध) २३७ संतों एवं फ़कीरों से भी भेंट किया करते थे और उनसे सत्संग कर मदना के साथ एकांत में भजन गाया करते थे तथा मदना अपना ‘रबाब बजाया करता था। । यात्रा करतेकरते एक बार इसका दक्षिण की ओर सिंहलद्वीप तक चला जाना अनुमान किया जाता है और प्रसिद्ध है कि वहाँ के राजा के लिए इन्होंने ‘प्राणसंगल्ली की रचना की थी । ऐसे भ्रमण के हो अवसर पर इन्होंने विख्यात फ़क़ीर शेख फ़रीद से भी दो बार भेंट की थी और ये उनके साथ में ठहरे थे । इनका मुसलमानों के पवित्र स्थान सबके तक जाना और वहां के पुजारियों से सत्संग करना भी बतलाया जाता है । अपने अंतिम दिनों में ये करिपुर में रहकर भजन एवं सत्संग करने लगे थे जहाँ सं० १५९५ की । आश्विन सुवि १० के दिन इनका देहांत हो गया। गुरु नानक देव तिलघरों के मूल प्रदर्चा थे और उनके अनंतर उनके शिष्यों की परंपरा में क्रमश: नद गुरुओं ने उसका प्रचार किया । वे सभी अपने आदिगुरु द्वारा अनुवाणित एवं उन्हीं प्रतिनिधि स्वरूप भी समझे जाते रहे और उन्हें 'मान' ही कहा जाता रहा । दसवें गुरु गोविंद सिंह के अन्तर इस परंपरा का रूप बदल गया और मानवीय गुरु का स्थान सदा के लिए गुरु ग्रंथ साहब' ने ले लिया । ‘आदिंग्रंथमें उक्त गुरुओं तथा बहुत से अन्य संतों की भी रचनाएं संगू ही हैं, किंतु ‘दसमग्रंथ' प्रधानतः गुरु गोबिंद सिंह की ही रचना, है : गुरु नानक देब की वानियां आदिग्रंथ के अंतर्गत महुला’ ? अर्थात् सर्वप्रथम गुरु के नीचे दी गई पायी जाती हैं । इनमें शब्द और सलोक ' अयत साखिया हैं तथा उनके अतरिक्त, गुरु नानक देव की रचना ‘जपुजी' 'असr दोवार, "रहिरासएवं ‘सोहिला’ का भी संग्रह है । फुटकर शब्दों बा पदों को विविध रागों के अंतर्गत रखा गया है और सलो' अधिकतर भिन्न-भिन्न बारों में पाये जाते है । रचनाओं में गुरु नानक देव के धार्मिक सिद्धांत तथा उनकी प्रमुख साधना नामस्मरण-