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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२५१

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२३८ का परिचय प्रायः सर्वत्र मिलता है । उनका एकेश्वरवाद, परमात्मा को सर्तव्यपक्रमा ने प्रति क्रांनिष्ठा, विश्व प्रमनाम की महत्ता में पूर्ण विश्वास आदि बातें विशेष उल्लेखनीय हैं। । उनके शब्दों में नावगभर्य के साथसाथ मस्ी की झलक भी दीख पड़ती है और उनकारी प्रयंक उद्गार अनुभूति की गहराई में निकलता है । वे झूठी सांसारिक विडंबनाओं के प्रबल विरोधी हैं, नम्रता एवं सहृदयता के सच्चे मसमय हैं और उनकी सर्वत्रनिद्ध चना जजीसे यह भी प्रकट होता है। क्रि उन्होंने बाम्नविन सामनवता के पूर्णविकास के लिए अपना एक विशेप काम 7वां था। गुरु नानकदेव की कथनशैली में विस्तार की 6ा समामपद्धनि का ही अनुमण अधिक दीग्छता । है । उनके पक्षों में पंजाबी शब्दों के प्रयोग भी घटू से हैं। उरां परमात्मा (१) जा लिऊ भावा तदही गाबा। झा गाखे का फतु पावा ॥ गादेका फलू होई में जा आपे बेचे सोई 1१। मन मेरे गुर बचनी निधि पाई । तातें सच महि हिर समाई ।हाउ। गर सास्की अंतरि जागी है ता चंचल अति तिभागी सुर सानी का उजीआरई 1 व मिटिा सगल अंधियोरा । गुर बचन्ो भतु लगा। त: जम का संरतु भगा । । में विचि निर भछ पाइ।। ता सह के थरि आइज । ।ई। भणति नामकुहू बू को बोचारी । इस जग महि करणी सारी ॥ करणी कीरत होई ॥ जा आये मिलिना सोई ४1। जी . . भ।िवा =जो व्यक्ति उस परमात्मा को प्रिय है ।तदह ही। "संाखो = , उपदेश।