सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मध्ययुग (पूर्वार्द्ध ) २३३ गुरु सेंध (२) गुर सबदि त: मुनि ते, इंादिक ब्रह्मदि तरे । सेनक सनंदन तपस्वी जन केले, गुर परसादी पर परे 1१। भव जलु बिन्दु सबई किब तरीयो' नाम बिना जमु रोगि बिन्यापिया दुविघा वि डुबि संरी रहा। राम व देवा गुरु अलख आय भवन, त्रिवण सभ्हें गुरकी सेवा ॥ आप दति की गुर , पइआ अलख अभेवा !।२। मछु राजा मनु मन ते , मनस सनहि समाई है। मनु जोगी मरु विनस वियोगी, मनु सभ* गुण गई है।३ है। पर ते रथ सबई निचरियाते विरल संसार है। नानक साहबु भरिपुरि लीणा , साच सबदि निसतारा ४I पारिपरे-धु त्रत हो गए। से इन्हें =सवी , सर ल, सहज़। अष कर =धय प्रदान कर दिया है बात == बात क्य बस्तु , परमा- ठ नक पद'थ कई । खैरनट के संकतानुसार। पारूपर गुरु (३) नित नोट गिननि मन मजदू, अठसछेि तीरथ संगि गहे है। सुर उपदेस जवाहर न णक, सेंधे सिख सके खोजि लहूं ।१। गुर समानि तीर नहीं कोइ । सरु संतोकु तसु गुरु होई ।।रहा. गुरु दरिग्रीड सदा जलु निरमलुमिलिया कुरमति सैलु हरें है। सतिगुरि पाइ पूरा नाव, पस पहु देव कई ।२है। रता सचि ना मितल ही अल्लू, सोगुरु परम कहोगें । जाकी बसु बनासपति संज, तालु चरण ईलब रही ११३। गुर मुखि जीअन प्राण उपजहि, गुरमुखि सिवघरि जाई ॥ भूर मुकि नाग सच ससई, गुरमृषि निजपद पाई ।४१। अंत्रितु .. हं=शिष्य अपने गुरु की सेवा लहरा सन को ज्ञान के अग्रुत.