पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२५४

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मध्यपुर (पूर्वार्द्ध । आपे बहुविध रंगुला, सखी ए मेरा लालु । मित रi , देलु हर हालु ३। प्रणवं नानकg बनतो, न सरव ने हंसु । कंउ है कबीना तू है, आये कि विगढ ।४। रवण झा भोगने वाला। चोल-जोलीबाली स्त्री, मणका -चमकीला : दादु=चाररा। रगुल=रंगीला, खेदवड़ी। कवच=कुर्स- दनीकेवड़ा । (३० आपण ही मछ कब अण हीं जाल, अषण ही धोवट आपां हों वाल/-मेरखानों, पद ४१, पृष्ठ १३५-६) बई एक (६)। आये गुण आये कथेआपे सुणि बीवाएं । आदे रतनु । रद्धि दें, अपे मोलू अपार लाचउ सानु महल श्राप देवण हारु 1१५ हरि जोड़ करता करतारू, जिद्ध भाई तिद्ध रासु हरिना मिलें चाचारु ५रखा।' आप हीस निरमलाआधे रंगु मजीठ । अपे मोती उजलो, आप भगत वसीडू । गुर बदि समाहणा, घटि घटि डीयू अडीडु +२॥ अये सागुरु वोहिथा, पापे पास अपडे। साची वायु सुजाणु हूं, सबदि लखावण हारु ॥ निडरिआ डरु जाणी, बा गुरू गुवारू ३॥ असथिन करता देखी, होरु केती आबे जाइ। पे मिरमल एकु हूं, हर बंधी बंधे पड़े। गुरि राखे सो , सचि सिड लिब लाई ॥४)। हरि अजीउ सबदि पछाणी, सचि रते गुर बाक्षिक । तितु तनि सैलु न लगईसच घरि जिसु ताकु । १६