पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२५६

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मध्ययुग () २४३। होदी = स्थित, वर्तमान। नदरिदृष्टि में । उसी का प्रसार (८)। एको सरबरु कमल अनूप। सदा विगासे परमल रूप। ऊजर मोती चू गह स। लरक कला जग दीस अंस 1१। जो दी: सो उपजे बिन: बिदु जल सरवरि कम्यु न दी: ।tरहाउ है। बिरला बूपार्वे अंडु। साखा तीनि निल वेड ॥ नाद विद को सुरति समझ । सति रु सेबि पर पहु पाइ १३। को रातड़ रंशिश रवांतड। राजन राजि सदा बिगसांत3 है। जिस त राहि किरपा धार। व डंस पाहन तारहि तारि है।३। त्रिभवण महि जोति त्रिभवण महि जाणिज॥ उलट भई घरु घरसंहि प्रापिअन !' अहि निति भाति करे लिब लाइ। नानकु लिनके लागे पाल ॥४है रबात =रमा हुआ। विरासांत= विकास पाता हुआ । सावन उलटिड कमल के हा बोचारि। अंत्रित थर गगनि बस दुआरि है। त्रिभबणु बेथिआ अपि मुरारि ।1१३। रे मन मेरे भर न कीजै । मनि सानि अंत्रित रसु पीलें ।रहाउ ५ जनमु जीति मणि मनु मानिआ। अप सूआ मनु मनते जानिया । नजरि भई घर घरते जानि 1२। जासू सलु तीरथु मजदु नमि । अधिक बिथार करड किस्तु कमि। पर नारण अंतर जामि है।३।। आन मनउ तड परचर जोड। किए जार्जुउ माही को था। नानक गुर अति सहजि ससाड ४। बिथा-=विस्तार । थाढ = स्थान।