नहीं मिलते और न इन संतों की किन्हीं रचनाओं द्वारा ही इसकी
पुष्टि होती है। इसके सिवाय इन सभी संतों का स्वामी रामानंद
के साथ समसामयिक होना भी सिद्ध नहीं होता जिस कारण उनके
साथ इन सभी महापुरुषों के किसी प्रत्यक्ष संबंध के विषय में अनुमान करना अधिकतर जनश्रुतियों तथा पौराणिक गाथाओं के
आधार पर ही संभव कहा जा सकता है। बात यह है कि उस समय
के पहले अर्थात् लगभग ३०० वर्षों से ही संत-परंपरा की विचारधारा के लिए अनुकूल क्षेत्र तैयार होता आ रहा था। पूर्वी भारत की
ओर विशेषतः उत्कल एवं बंगाल प्रदेशों में बौद्ध धर्म के क्रमशः वज्रयान एवं सहजयान में परिणत हो जाने के कारण, उसके तथा
स्थानीय वैष्णव संप्रदायों के बीच कोई विशेष अंतर नहीं रह गया था।
वे एक दूसर के साथ कई बातों का आदान-प्रदान करते हुए निकटतर
आते जा रह थे। महाराष्ट्र एवं राजस्थान की ओर भी इसी प्रकार
नाथ पंथ एवं स्थानीय वैष्णव संप्रदायों की विचार-धाराएँ आपस में
मिलती जा रही थीं और सुदूर काश्मीर तक ऐसी बातों का प्रभाव
वहाँ के शैव संप्रदाय की अनेक बातों में दीख पड़ने लगा था।
फलस्वरूप पूर्व की ओर संत जयदेव, दक्षिण की ओर संत ज्ञानदेव,
नामदेव एवं त्रिलोचन, पश्चिम की ओर संत बेनी एवं सधना तथा काश्मीर
की ओर संत लालदेव का आविर्भाव स्वामी रामानंद से पहले ही
हो चुका था। वे कबीर साहब तथा स्वयं उनके लिए भी पथ-प्रदर्शन
का काम कर सकते थे। स्वामी रामानंद श्री संप्रदाय के अनुयायी
श्री राघवानंद के दीक्षित शिष्य जिन पर नाथपंथ की साधनाओं
तथा सिद्धांतों का भी बहुत कुछ प्रभाव पड़ चुका था और विस्तृत
देशाटन तथा विविध सत्संगों के कारण उनके विचार अपने गुरु
से भी कहीं अधिक व्यापक एवं उदार बन गए थे। अतएव
स्वामी रामानंद कबीर साहब के प्रत्यक्ष गुरु न होते हुए भी उनके
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