पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मध्ग (पूर्वी) २४७ सुनिश्चित। तिनेहर =उले। त्रिस्टसि-चाहता है । सदाचरण (१५) परदारा परथ पर लोभ, हड में बि से विकार। दुस्ष्ट भट् तजि ईद , का क्रोधु चं।k १। महल महि में ठ अगस अपार 1 भीतर अंतुि सोई जसू , जिसु मुर का सबई रतनु घाचार । ।रा३ !! दुख सुख व दो सन कर जानें, बुरा भला संसार । सुद्धि बुधि सुरति नमि हरि पाई, सतसंगति गुर पिचार ।’। हिमिति लाहा हरि नासू परापति, गुरु दाता दे वणहार । तु र मुखि सिख सोई जमुपाए, जिसनो नदर डेरे करतारु है३ । काइथा महलु मंदरु बरु हरि कालिवुसहि रानी जोति अपार। नानक न .र मुस्खि ल बुलाई, हरि मेले मेलणहार ।४। राममन्नाम (१६) राम नामि मन वेधिना आवश कि कके बीच । सबद सरति स ख फ अपर्क प्रभ रतड संखसारू । जिंड भाव लिंड राहु तू मै हरि नामु, प्रधार हैं१। मनरे साची खसम रआइ । जिनि तनु मनु साजि लीगारियातिसु सेनी लिव लाइ ।रहाउ । त है संतरि होमी इक रसो तोलि कटाई । तनु सतु सम वाले की अवदितु अगनि जलाश। हरि नाले जूलि न पूजई३ लख कोटि करम काइ 1२। अर सरी कटाई सिरि करबसु धराई । ततू हैमंचलि भालो भी मन हो. खून जाइ। रि नामैं तुलि स जई सभ फिठी ठोकि बजाइ 1३।