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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२६२

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ध्ययुग (इवर्किं ) २४९. नासा संभल दो बिगासन, लिहू गु ण ग्रास निरास भई । रीऑा बसथा गुर .लि पाई, संत सभा की उठलही है।४१। गिप्रास चिप्रान सले सर्भि जलएजि हरिहद अलख आनेवा । नन्नक्ष राम नागि संतु राता, रुति पाए सहज सेवा १५। दुतरू =दुस्तार। पिंरसिउ =षियसे। सरेवउ--पड़ती हूं । उठ: = इट, अभय । (१८) कवन कबन जाहि प्रभदते ताके अंतन परह सुसार । जैसी भूख होइ अभयंतरि टू समस्यु सदु देवणहार ।१। अजं। ज५ तयु संज, सद् अधार। हरि हरि ना देहि सुलु पाईपतेरीभगति पुरे भंडार से रहा। स्न समाधि रहद लिव लाओं, एका एक सबढ वीचर। जलु यदु अरण गगन्तुतह नहीअधे पुल कोआ करतार !२५ ना तदिनइआ मन्नु न , न्ा सुरज चंद न जोति अपार । सरब जिन सटि लोचन अयंतरि,एक नरि त्रिवण सार 1३ । पवणु पाणी अगनि तिति कोआ, ब्रह्मा विसर्स महेस अकार। संरके जाचिक ढूं में दालों, दाति कर अनै वचार १४। कोटि तेतीस अवह प्रच नाइक देखे तोटेि ही भंडारु । ऊंचे भांडे कयू न सद6, सीधे अंत्रि पई निहार ।५ । . सिध समाघी अंतरि जचहिरिधि सिंधि जाचि करह क्षार । जैसी फिास होझ सन अंतरि, सो ज देव िपरकार 1६है। बंटू भाग गुरु सवह पुना, भेद हो गुर व । ताकड का नाही जमुजहै, बू झहि अंतरि सबढ बीचर ।७। अब त'द अब न मागज हरि पहि, नायु मिरंजन दीर्थ पिनारि। .नामकक्ष यांत्रिकुछ अं ित ज मार्ग, हरि जस्तु दी किरपा थरि है।८।