पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२६३

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२५० संलक्राय। कोटि तीस =देवगण ' तोटि-कमी। (१९) अलख अपार अगम अगो दरि, ना तिसु कल न करता। जाति अजाति अजोनी संभउना तिरु भंड न भरना t १" साचे सचिआर रविडू कुर दाणु । ना तिरु रूप वरतु नहीं रेखिआ, सार्ज सबदि नीसाणु ॥रहाउ।। ना तिरु मात पिता रूत , या तिलु कामु, न नायी। अकुल निरंजन अपरपरंपर, सगली जोति कुमारी 1२। ॥ घट घर अंतरि आप लुकाइएघटि घदि जोति सबाई। वजर काट चुकेत गुरमतोमिरों ताड़ी लाई है।३। अंत उपाइ कालू सिरि जंता, बसगत गति सवाई। सति दुरु से वि पदारशु, छह सबकु कमाई 1४है। सू चें भर्ड साधुसमावे, विरले सू चा चारी। तत कई परम हंतु मिलाइआ, नानक सरणि कुमारी 1५। बंधप=बांधवभाई बंधु। आरती (२०) गगन में थाल रवि कु बीपक बनेतारिका मंडल जनक मोती। घ मलआनलो पदणु चवरो , सगल बनराह प्रेत जोती ।१। कसा आरती होइ भव ख डनों में री आरती। अनहता सबद वाजंत मेरी ।रहाउ ॥ सहस तव नैन नन नैन है तोहिंकजसहस सूरति ताएक तोही। सहस पद विमल नन एक पद व बिमसहस तब गइध चलत सोही ।।२." सों महि जोति जोति है सोई। सिसके चानण सभ महि चाभ होझ । रसाखी जोति प्रगटु होई।