२५६ संत-काव्य
और उनके दिये हुए अपने नाम ‘अंगद’ (का अर्थ। आत्मीप) की सार्थकता निद्र ने रात हुए, उन के द. का प्रचार केर, अंत मेंमें 5 १६०९ की गत मुदि ३ की, उन्होंने अपना चोला छोड़ा । है गुरु । अंगद ने गुरु नन क्षक देव को रचनाओं को एकत्र कराया स्विखिल करने के लिए गुरुमुखड़े अक्षरों का आविष्कार क्रय। लंगर द्वारा अतिथि सफर करने की प्रथा चन्शमई और अपने गुरु की एक 'जन्म सनोभी लिखवायी । उन्होंने स्वयं बहुत नहीं लिखा और ‘आदिग्रंथमें उन रचे हुए क्वल कुछ 'लोक' ही दो पड़ते हैं जिनमें उनकी गुरुभनित, ईश्वर प्रेम. सदाचरण, आदि का पूरा पता चलता है । गुरु अंगद के सच्चे हृदय और आध्यात्मिक जीवन को व्यबत करने वाली ऐसी पंक्तियां कुछ और भी मिल पातीं तो क्या ही अच्छा होता । जिस पिअरेसिज , तिस आगे रि चलो । लुिगु जीवणु संसारतारे पड़े जबणा ५१। जो सिरे सांई ना निवेसो सिरु दीक रि। नानक जिस बंजर सहि वि रहा हो, सो पिंजरु ले जारि १२ आ जो बाई व गां, विणु कैना सुनगा । रा वाइड चलणा, विशु हथा करणा है। जीई चाझहु बोलणा, इड जीवत मरण। नानक हुक्मुपछाणिकेतड खसम मिलणा ।३।॥ मानक परवं आपक, ता पारडु जाए। गु दारू होवे बु, ता बैंड सुजाणु 181। नगी पाला सिक, सूरज फही रति । चंद अनेक किकरेपउण पाणी किग्रा जाति ॥ 'धरतो चीजी किक, जिसु बिचि स किलू होते।