पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२७

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अधिक निकट रहने के कारण उन्हें भलीभाँति प्रभावित कर सकते थे। परन्तु यह बात कबीर साहब के सभी समसामयिकों के विषय में भी उसी प्रकार घटायी नहीं जा सकती।

वास्तव में इन संतों के संबंध में इनके किसी सांप्रदायिक दीक्षा गुरु के रहने वा न रहने का कोई महत्वपूर्ण प्रश्न भी नहीं उठता। 'संत' शब्द ‘सत्' शब्द का एक अन्यतम रूप है जिसका वास्तविक अर्थ अस्तित्व का बोधक है और जो एक प्रकार से 'सत्य' का भी पर्यायवाची है। संतों का प्रधान लक्षण, इस कारण, यही हो सकता है कि वे सत्य के प्रति पूरी 'आस्था' रखते हैं और उसी के अनुसार अपने जीवन को ढाल भी देते हैं। सत्य की अनुभूति उनमें उसके साथ-साथ तदाम्यता का भाव ला देती है जिस कारण उनमें सम्यक् दर्शन की शक्ति आ जाती है और उनका जीवन स्तर बहुत ऊँचे बनकर उनके व्यक्तित्व को एक नितांत शुद्ध, सरल एवं सात्विक रूप प्रदान कर देता है। तदनुसार उनमें किसी प्रकार के संकुचित वा संकीर्ण विचारों के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता। ये सभी धर्मों, संप्रदायों, जातियों वा वर्गों को एक समान देखने लग जाते हैं। उन्हें यदि किसी गुरु की आवश्यकता भी पड़ती है तो केवल इसीलिए कि वह उनके प्रांरभिक साधारण जीवन की दशा में उनके सामने कोई न कोई एक संकेत व सुझाव सा प्रस्तुत कर देता है जिसकी झलक उसके प्रवाह की दिशा को सहसा बदल देती है। गुरु उनका इस प्रकार केवल पथ-प्रदर्शन मात्र करता है। 'जीवन' का पूर्ण कायापलट उनकी निजी साधना एवं अनुभूति पर ही आश्रित रहा करता है। उनके लिए न तो किसी संप्रदाय-विशेष के रूढ़िगत नियमों का पालन आवश्यक होता है और न वे इसी कारण, किसी व्यक्ति विशेष के ऐसे दोक्षित शिष्य ही कहे जा सकते हैं जिनके लिए उसने कतिपय विधियों का निर्वाह तथा साधनाओं का अभ्यास