संतकाय नित्यशः शालिग्राम की पूजा किया करते थे । किन्तु उहैं उससे पूर्ण । शांति का अनुभव नहीं होता था । अतएवएक दिनजब वे इसी प्रकार की बातें सोच रहे थे कि उन्हें गुरु अंगद की लड़की के मुख से, जो उन्ही के नतीजे से ब्याही गई थी, गुरु नानक देव का एक पद मुन पड़ा tके उससे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उसे बारबार दुहरवा कर सुना और वध के पिता से भी जाकर भेंट की। गुरु अंगद ने उन्हें वैसे अन्य पद भी सुनाये और उनकी बार्मिक जिज्ञासा को पूर्णकर उन्हें अपना शिष्य बना लिया 1 अमरू गुरु अंगद क बहुत बड़े भक्त हो गए । वे अपनी अवस्था अधिक होने पर भी, नित्य प्रति पहर भर रात शेष रहे उठते, अपने निवास स्थान गोंइंदवाल से जाकर व्यास नदी का पानी लाते और फिर खडूर जाकर उस जल से अपने गुरु को स्नान कराते तथा रास्ते भर ‘जपुजी का पाठ करने जाते 1 खडूर में में अपने गुरु के स्लिए पानी भरने, लकड़ी ला देने, बर्तन साफ कर देने तथा उनके पैर दबाने का काम भी किया करते थे और, फिर पीठ की ओर से ही गोइंदवाल लौट जाते थे । अमरू की भक्ति से उनके गुरु इतने प्रसन्न थे कि एक बार उन्होंने इन्हें अपने निकट बुलाकर इन्हें अपनी गद्दो पर बिठला दिया। गुरु अंगद की मृत्यु के समय अमरू की अवस्था ७३ वर्ष की थी, किन्तु वृद्ध होने पर भी सिख धर्म के लिए इन्होंने बहुत कुछ किया और लगभग २२ वर्षों तक गुरुगद्दी पर बने रहकर सं० १६३१ की भादो सुदि १५ को इन्होंने अपना चोला छोड़ा । गुरु अमरदास अपने स्वभाव से अत्यंत मन तथा क्षमताशील थे और एक शुद्ध संयत जीवन व्यतीत करते थे । उनके लंगर में जाकर कोई भी बिना भोजन किये नहीं लौट पाता था और सब किसी को एक ही पंक्ति में बैठकर एक समान भोजन करना पड़ता था 1 वें रम आस्तिक थे और कहा करते थे कि जिस प्रकार कीचड़ में रहता हुआ भी कमल अपनी पंखुड़ियों को सूर्य की ओर विकसित किये रहता
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