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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२८

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किसी प्रकार अनिवार्य बतलाया हो।

कबीर साहब और उनके समसामयिक संतों का काल संत-परंपरा के लिए प्रारंभिक युग था। उस समय के किसी भी संत ने अपन अनुकरण में अग्रसर होने वालों का कोई संगठन नहीं किया और न उन्हें किसी साधना व संदेश के प्रचार के लिए कोई प्रेरणा प्रदान की। जहाँ तक पता चलता है, उन लोगों ने जो भी उपदेश दिये, अपने व्यक्तिगत अनुभवों के अनुसार ही दिये और प्रत्येक व्यक्ति को अपने निजी अनुभव की कसौटी पर भलीभाँति उसे परखकर ही स्वीकार करने का परामर्श दिया। किन्तु संत-परंपरा की प्रगति के मध्य युग अर्थात् सं॰ १५५० से लेकर सं॰ १८५० तक के ३०० वर्षों में इस नियम का ठीक-ठीक पालन न हो सका और गुरु नानकदेव (सं॰ १५२६-१५९५) के समय से सामुदायिक संगठन, शिष्य पद्धति निर्माण तथा उपदेश संग्रह की भी प्रथा चल निकली। उक्त युग के पूर्वाद्ध काल (अर्थात् सं॰ १५५०-१७००) केवल गुरु नानकदेव के नानक पंथ के अतिरिक्त, दादू दयाल (सं॰ १६१०-१६६०) के दादू-पंथ, बावरी साहिबा (१७ वीं शताब्दी) के बावरी-पंथ, हरिदास (मृ॰ सं॰ १७०० ) के निरंजनी संप्रदाय तथा मलूकदास (सं॰ १६३१-१७३९) के मलूक पंथ नामक वर्गों की ही सृष्टि हुई, प्रत्युत कबीर साहब के नाम पर एक कबीर पंथ भी बनकर तैयार हो गया। इसी प्रकार लालपंथ एवं साधसंप्रदाय भी बन गए। इन पंथों वा संप्रदायों के भिन्न-भिन्न केंद्र स्थापित हो गए। इनके उपदेश-संग्रहों को धर्मग्रंथों का महत्व मिलने लगा और इन पृथक्-पृथक् वर्गों के प्रवर्तकों की मूल विचारधारा के कबीर साहब के सिद्धांतानुसार होने पर भी इनकी सामुदायिक इकाइयों में कुछ न कुछ विशेषताएं भी आने लगीं। उस समय केवल थोड़े ही ऐसे संत थे जिन्होंने उक्त प्रकार के सामूहिक वर्ग निर्माण की चेष्टा नहीं की।