पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२८०

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समयुग (पूर्वार्द्ध) २६७ हैं । जलदी =जल के लिए। हस्सा ... तरंदिग्राहस को तैरता हुआां देख कर चव ड -चा। थेि -- वहां। तोटि =त्रुटि, कमी। रवहि-शायर करता हूं । बन . . .हइ-यत और पत्भो नामों के साथ पृथक्-पृथक् वर्णन नहीं करना चाहिएवे दोनों, वस्तुतःएक हो ह । स . . .है =सभी कोई नाशमन ई । सहुजि. . . में डि =सहज रूपो पौधे के के फलों पर अमर निर्भय विचरा करता है । भिरंतु = श, अमर । दुतरु=दुल्तर कठिनाई । खें तरा न वाला ? संत सिंगाजी संत सिंगाजो का जन्म, रियासत वइवानी (मध्यभारत) के खूजी वा यूजरगांव में, सं० १५७६ की वैशाख सृदि १५ को, हुआ था। इनके पिता-माता को जाति ग्वालों की थी और वे इनके जन्म के ५-६ वर्ष पोछे इन्हें तथा अपना सब सामान व ३०० गायें लेकर हरसूद गांव में जा बस गए सं० १५९८ में, सिंगाजी अपनी २१ वर्ष की अवस्था में, भामगढ़ (निमाड़) के रावसाहब के यहां , एक रुपया मासिक वेतन पर, चिट्ठीपत्री पहुंचाने के काम में नियुक्त हुए औरक्रमशः अपने मालिक के एक विश्वासपात्र सेवक हो गए। परन्तु इनके मन का झुकाव, बहुत पहले से ही, कुछ विरक्ति की ओर भी रहा करता था, इसलिए, एक दिन जब ये चपरासी के वेश में घोड़े पर चढ़कर जा रहे थे कि इन्हें मार्ग में किसी मनरंमीर जो साधु का गाना सुन पड़ा जो वैसे ही भावों से भरा था और ये उससे प्रभावित होकर उनके शिष्य हो गए। इन्होंने राव साहब की नौकरी का परित्याग कर दिया और पोपल्या के जगलों में जाकर निर्गुण ब्रह की उपासना में लीन रहने लगे। यहीं "पर रहने समय इन्होंने . अपने अनुभवों की उमंग में आकर लगभग ८०० बानियों की रचना को और अंत में, अपने गुरु के रुष्ट हो जाने पर, सं० १६ १६ में जोवित समाधि ले लो में इनको समाधि के चिह्न