२६८ संसकाव्य वहां की क्किड़ नदी के किनारे आज भी वर्तमान हैं जहां प्रति वर्ष आश्विन में मेला लगता है। संत सिंगाजी की रचनाओं का कोई संग्रह अभी तक प्रकाशित नहीं है । मैं यहां की जनता द्वारा बड़े प्रेमभाव के साथ गायी जाती हैं । इनके कतिपय पदों का एक बहुत छोटा सा संटूइनके संक्षिप्त परिचय के साथ जोड़वा से प्रकाशित हुआ है । इनकी विचार- आशा का यू ल स्रोत भी अन्य संतों के ही मत से लगा हुआ जान पड़ता हैं और इन वनियों में भी स्वानुभूति की ही मात्रा अधिक है ; इनका हृदय निनांत स्वच्छ तथा सरल हैं और अपने इष्ट परमतत्व के प्रति इनकी निष्ठा श्र गाढ़ एवं अगाध है : इन शब्दों में प्रेमभाव भरा हुआ है और ये एक उच्च कोटि की आत्मानुभूति में सवा स्लीन हत हुए जान पड़ते है । इनकी भाषा निमाड़ी द्वारा प्रभावित हिंदी है जिस कारण इनके कई उदगारों का भाव गांभीर्य सवक लिए वहथा स्पष्ट नहीं हो पाता। (१) में तो ज' साईं दूर है, इसके पश्या नेड़ा। रही रही सामरथ भईमुझे पखवा तेरा टेका लुम सोना हम गहा, मुझे लाभा टांका। तुम तो बोलो हम देहुं धरि, बोले है रंग भाखा ११ है। सुम चं। हम चांदणी, रणी उजियाला। तुमलो सूरज हम बामलासोई चजुग पुत्रियां हैं२४ दुगतो बरियाघ हम मीनहैं, विश्वास का रहा। देह गली मिट्टी भईलेशरा तूही में समाणा ।३। सुन तरवर हम पंछोड़ा, बैठे एक ही डाला ।
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