पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२८३

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२७० संत-व्य मोतियन की व , कोइ हरिजन भीछे 1३। राह हमारी बारी है, हाथी नहीं समाय, सिंगाजी चोंटी हुई रहा, निर्भय नाबनो जाय 1४ । संगी-साथी, यहां पर मन में सीधड़ापात्र, बर्तन । पाब = चतुर्थश, चौथाई। बिसाथा= साहा, खरीक्षा में घुरत=हरा रहा है। बॉरोक सक्ष्म । (४) पाणी में मीन पियासी, मोहे सुन सुन आवे हांसी ।टक।। जल बिच कमल कमल बिच कलियां, जंह वासूदेव अविनाशी। घट में गंगा घट में जमुना, वहीं द्वारका कासी ११। घर बस्तु बाहर क्यों ढूंढो, बन वन फिरो उदासी। कहे जन सिगा सुनो भाइ साधू, अमरापुर के के वासी ।।२है। यह पद, कुछ ठभेद के साथ, कंज्ञोर को भी बानियों में संगृहीत पाया जाता है। अगम्य परमात्ल () निर्गुण न हा है न्याराकोइ समझो समझणहारा टिकी। ब्रह्म जनम सिराणामुनिजन पार न पाया। खोजत खोजल शिवजी था, वो ऐसा अपरंपरा १। शेष सहस सुख रटे निरंतर, रैन दिवस एक सारा। ऋषि मुनि और सिद्ध चौरासी, वो तेंतीस कोटि पचिहार। ।२। । त्रिकुटी महल में अनहद बा, होत शब्द झनकारा। सुकमणि सेज शून्य में झूलेवो सह पुरुष हमारा 1३।। दर्द कथ अरु कहे निवणीश्रोता कहो विचारा। काम क्रोश मद मत्सर त्यागो, ये झूठा सकल पसरा ।४। एक बूंद की रचना सारीजाका सकल पसारा।