पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२८५

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२७२ संत- पद। अंतिम शरण (१) नैनहु नीरू बंद तनु घीना, भए केस दुधवनी। रूथ कटु संबद्ध नहीं उचई, अब किछा करहि पानी 1१। राम राई होहि ने झ बनवारी से अपने संतह लेहू उब री रहा। मथे पीर सरीरि जलनि है, करक करेगे माही। औसो वेदन उपजि शरी भई, बाका औषधु नाही ।२t हरिका नाम अंत्रित जलु निरस्तु, इडु औषधु अगि सारा। गुर परसरदि कई जनु भषिदुपाबठ मोष दुआरा ३३। दुघावनीडू की भांति । औसो... ई=ऐसी तोत्र दना का अनुभव होने लगा। सोष दुआरा-मोक्ष की उपलधि। नाम महन्ध (२) औसइ नासू रत निमोलकु, बुनि पदारभू पाआ। अनिक जतन कर हिई राषिआ, रतलु न छपे छपाइआ है। हथुिन कहते कह न जाई। जैसे गूंगे को मिठियाई ।रहा। रसना रनत सुनत सुधु नवना, चित चेते सुषु होई। कह भीधन टुडू नैन , जहं देषां तह सोई ।२है। निरमोलकुछअनमोलअनुपम t रसना. ..होई=जि हृा रामनाम व बिंदु ण में लोन है, काम उसे ही सु न कर आनंदित होते हैं तथा उसी का चितन कर अपना चित्त भी प्रसन्न रहा करता है' संतोखे संदुरुट हो शए । गुरु रामदास गुरु रामदास का जन्म, सं० १५९१ की कातिक बदि २ को, लाहोर नगर की चुन्नी मंडी में, आ । उनका परिवार खत्री का था और उनके पितामाता ने उन्हें लड़कपन मेंचने उबाल कर घुघनी बेचने का काम