मयम () २७३ सिंधुई किया था । किन्तु उनका मन साधुओं की सत्संगति में अधिक लगा रहा था । इसलिए वे एक बार साधुओं के ही साथसाथ किसी प्रकार गोइंदवाल तक पहुंच गए 1 वहां पर उनके सुन्दर शरीर और अच्छे स्वभाव को देखकर गुरु अमरदास ने अपनी पुत्री के साथ इनका विवाह कर दिया और ये उन्हीं के शिष्य भी हो गए। ये गुरु अमरदास के मरने परउनकी गद्दी पर, चौथे गुरू के रूप में बैठे और इनके पीछे सिख गुरुओं की परंपर एक ही कुटुब के लोगों में चलने लगी । गुरु राम- दास ने तालाबनिर्माण के अतिरिक्त, द्रव्य-संग्रह के लिए ससंदों की नियुबिन क्री और धर्मप्रचार के लिए अन्य कार्य भी किये । ये बहुत ही नम्र स्वभाव के थे और ईश्वर भक्तों के प्रति पूर्णनिष्ठा रखा करते थे । इन्होंने गुरु नानक देव के पुत्र उदासी श्रीचंदजी को एक बार उनसे मिलते समय कहा था कि मैंने अपनी लंबी दाढ़ी आपके पूज्य चरणों को पौंछने के लिए बढ़ा रखी है ! गुरु रामदास की रचनाएं भी ‘आदिग्रंथ' में ही संगृहीत मिलती। है। और वे उसमें ‘महला' ४ के अंतर्गत दी गई हैं । उनमें अनेक पद और सलोक (साखियां) हैं जिनकी संख्या कम नहीं जान पड़ती। इनकी रचनाओं में परमात्मा के प्रति पूर्ण अनुरक्ति, उसके सर्वव्यापक, सर्वा तर्यामी तथा सवाँपरि होने की धारणा एवं उसकी उपलब्धि के लिए दाम स्मरण की साधना के वर्णन अत्यंत सुन्दर है । इनकी सरल हृदयता के साथ-साथ इनका दृढ़ निश्चय भी प्रयः सर्वत्र दीख पड़ता है । इनके पद अधिकतर छोटेछोटे ही मिलते , किंतु उनमें प्रयुक्त इनके शब्दों तथा इनकी वनशैली से प्रतीत होता है कि इन्हें काव्य-रचना पर अच्छा अधिकार था। गुरु रामदास का देहांत सं० १६३८ की भावो सुदि ३ को हुआ था । प्रद पनी प्रवृत्ति (१) कबड़े भाले शंघखें तवाकबको बजादे रबाबु । प्रबत जात वार खिनु लाएं, हड तब लए समरड नामु ५१। १८
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