पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२८९

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२७६ संत-काव्य सर्वव्यापक हरि (६) जिड पसरी सूरज किरणि जोति अति घटि-घटि रमई उति पति ११ एको हरि रबिआस8 थाइ। गुर सबदी मिलोगें मेरी माह रहा। घटि यदि अंतरि एको हरि सोइ। मुरि सिंलि इ0 प्रगटु होझ।२॥ एको एडु रहिंआ भरपूरि। साल दर लोभी जाषहि दूरि 11३। एको एख बरसे हरि लोइ। नानक हरि एको करे सु होइ १४ उतियोति=मतप्रोत, बास । रविव=रमा हुआ है। थइ= स्थान। साकत =शावत, अज्ञानी। चंचल मन (७) काइना नगर इकुछ बालकु बसिंआ, वितु पशु थिरु न रहाई । अनिक उपाब जतन करि याके, बारंबार रसाई ११। मेरे ठाकुर बालकु इकटु घर आए। सतिगुरु मिले त पूरा पाइनैभजु राम नामु नीसाणु ।रहाउड।। इड मिरतकुछ मड़ा सरीरु है स जहू, जिलू रार नाम नहि बसिश्र ॥ राम नाम गुरि उद बुआइआ, फिरि हरिआ होआ बसिआ २॥ मै निरपत निरखत सरोरा प्रभु घोजियाइछ गुर सुषि चल दिया। बाहरु धजि मुए समि साकत, हरि गुरमती घरि पाइथा ।३। दीना दीन दइआल भए है, जिउ क्रिस बिंदुर घरि आइआ है मिलिउ सुदामा भावनी धारि स किछु आतदालडु भंजि समाइथा ।४। राम नाम की पैज बड़ेरीमेरे ठाकुरि आदि रघाई। ज्ञ समि साफत करह बघोलो, इकरती तिलु न घटाई५५। जन की उसति है रामनामा, यह विस सोभा पाई है। निदऊ साकतु बनि न सके तिलु, अर्ण घरि लूकी लाई 1६)। जनकड जतु मिलि सभा पावे, गुण महि गुण परगासा । मेरे ठाकुर के जन प्रीतम पियारे, जो होवहि वासनि बासा। 1ा।