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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२९

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फिर भी, मध्य युगीन संत-परंपरा का उक्त पूर्वार्द्धकाल केवल पंथ-निर्माण के सूत्रपात तथा उसके लिए किये गए प्रांरभिक प्रयासों के लिए ही प्रसिद्ध है। ऐसे पंथों वा संप्रदायों की अधिक संख्या उस युग के उत्तरार्द्ध काल (अर्थात् सं॰ १७००-१८५०) में दीख पड़ी जब कि संत बाबालाल (सं॰ १६४७-१७१२) के नेतृत्व में बाबालाली संप्रदाय, संत प्राणनाथ (सं॰ १६७५-१७५१) का धामी संप्रदाय, साध संप्रदाय की एक शाखा के रूप में सतनामी संप्रदाय बाबा धरनीदास। १८ वीं शताब्दी पूर्वाद्ध का धरनीश्वरी संप्रदाय, बिहारी दरिया दास (सं॰ १७३१-१८३७) का दरियादासी संप्रदाय, सारवाड़ी दरिया साहब (सं॰ १७३३-१८१५) का दरियापंथ, संत शिवनारायण (१८ वीं शताब्दी उत्तरार्द्ध) का शिवनारायणी संप्रदाय, संत चरणदास (सं॰ १७६०-१८३९) का चरणदासी संप्रदाय, संत गरीबदास (सं॰ १७७४-१८३५) का गरीब पंथ, संत पानपदास (सं॰ १७७६-१८३० ) का पानपपंथ और संत रामचरणदास (सं॰ १७७८- १८३०) का राम सनेही संप्रदाय नामक भिन्न-भिन्न वर्ग प्रतिष्ठित हो गए तथा इन सभी का अपने-अपने क्षेत्रों में संगठित रूप से प्रचार भी होने लगा। इस काल में दीन दरवेश (उन्नीसवीं शताब्दी प्रथम चरण तथा बुल्लेशाह (सं॰ १७३७-१८१०) और बाबा किनाराम (मृ॰ सं॰ १८२६) जैसे कुछ अन्य संत भी हुए जिन्होंने संतमत का किसी न किसी रूप में प्रचार किया। यह समय उस प्रकार के संतों का था जो संत-मत को अधिकतर किसी न किसी समन्वयात्मक दृष्टि से देखते थे। इनमें से कई एक सम्राट अकबर (सं॰ १५९९ १६६२) की भाँति, एक ऐसे मत का प्रचार करना चाहते थे जिसके अंतर्गत सभी प्रचलित धर्मों के मूल सिद्धांतों का समावेश हो सके। अतः अन्य धर्मों के प्रमुख मान्य ग्रंथों का अध्ययन और सूफ़ियों एवं वेदांतियों द्वारा प्रभावित विचारों का प्रचार तो हुआ ही, उसके