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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२९१

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२७८ संतकाय। ! किन्हें प्रीति लाई जा झाड रिब आरि, किन्हें प्रीति लाई मोह अपमान है हरिजन प्रीति लाई हरि निरबाणपदनानक सिमरतहरि हदि भगवान १२४ वि=क्षण। रिद=हृदय में 1 . अऐ बरती साजोअणुअहे आाक्षासु ।। बिच्चि आपे जंत उपाइअनु, मुवि आापे वेइ गिरासू भ११ हरि प्रभका सर्भ हैं, हरि आदि किरसो लाइ । गुर मुखि बयसि जमाईअम, ममनुषी मूलु गंवाइन १२। बड़ भागध्रा सोहाणी, जिन (र सु चि मिलिी हरिराई ॥ अंतर जोति प्रगासोत्रानानक नाम ससइ 1३है। सा धरती भई हरिवलीजिई सेरस सतिगुरु बैठा जाई । से जेल भए हरिआश्वलेजिनी मेरा सतिगुरु देषिआ जाइ४। किया सक्षण किया जागण , गुर मुद्धि से परब ।। जिना सास गिरासि न बिसरेसे पूरे पुरब पधान है। करसी सत रू पाईए, अनुदिन लगे चिया । तिनकों संगति सिलिरहांदगह पाई मालू 41 ६। मनमुख प्राणी मुगए है, नामहीण भरमाइ ॥ बिनु गुर संसू आ ना टिके, फिरि फिरि जूनो पाइ १७५ । अंधे नानणु ताथो, जा सतिगुरु मिले रजाई । बंघन तोड़े सचि बसुअगिआनु अंधेरा जाई !!!! हरिबासन सिड प्रीति है, हरिदासन को मिस्र ॥ हरिदासन क बसि है, जिड जंती के वरि जंडू ।। सो हरिजनु नाम ईधप्राइदत्र, हरि हरिजतु इक समामि है। जन नानकु हरि का बासु है, हरि पैरों रषहु भगवान से १०। शु रवि अंतरि सांति है, मनि तनि नाम समाइ ? नामो चितब नापू , नामि रहे लिव लाई 1११।