पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मध्ययुग (पूर्वार्द्ध) २७ नासू पदाख पाइप्रस, चितगई कि लाइ सतिंदु रि निलि ना उपलै, तिसना भूष सभ जाछ है।१२है। सजोत्रहैं: -: : भिव है नइ शु =उर fन्न किया ? मिस्त=भोजन है फिरसारण =किसानी में हरियाली हरीभरी । जिe==जहां पर है जहाज , प्रणी । हरिश्रबले =सुखी वे सबणीट सोना १ सासिगिरासि=प्रत्येक श्वासप्रश्वाल। दरगहदबंर परमामा के यम्स' वी४ लाख योनि, अरबागमन। चानणु = प्रकाश हाथो* =बहों पर। जंती . . . जंतु जिस प्रकार, किसी बजर वाहे यंत्रो) के हाथ में उसका बाजा रहा करता है ' पेस =प्रतिज्ञा। तिसना-=उसकी। संत दास अर्मदास कोर-की छत्तीसगढ़ी शाखा के के मूल प्रवर्तक थे । अरउसे उन्होंने अपने निवासस्थान बांधोगढ़ में सर्वप्रथम स्थापित को थी। उनके विषय में अनेक-अनेक प्रकार की कथाएं प्रसिद्ध हैं जो अधिकतर पौराणिक पद्धति पर ही रची गई है । वे कवीर साव के गुरुमुख चेले कहे जाते हैं, किन्तु छत्तीसगढ़ी शाखा की गुरुपरंपरा की तालिका से ही जईन पड़ता है कि उन दोनों के जीवनकालों में बहुत अंतर रहा होगा । धर्मदास की उपलब्ध रचनाओं में भी यत्रतत्र यही दीखता है। कि उन्होंने कबीर सहव के किसी अलौकिक रूप के ही दर्शन किये थे ? कबीर साहब के प्रति उनकी श्रद्धा दैत्री भावना लिये हुई थी और उन्होंने उन्हें एक प्रकार का अवतारी महापुरुष मान रखा था ? वे जाति के कसौंधन वनिया थे और उनका आविभवि, संभवतविक्रम की सत्र हवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुआ था । धर्मदास की रचनाएं भक्ति रस द्वारा -प्रोत हैं और उनमें इष्टदेव का स्थान प्रधानत कबीर साहब ने ही ग्रहण किया है । उनका बनाया हुआ कोई ग्रंथ ऐसा नहीं मिलता जिसे असंदिग्ध रूप से.