पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२९४

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मध्ययुग (पूर्वार्द्ध २८१ पूंजी न टूटे नफा चौगुना, बनिज किया हम भारी । हाट जमाती रोक न सहेिं, निर्भय गैल हमारी २ा। मोती डूडूब घटही में उप, सुकिरत भरत कोठारी ? नाम पदारथ लाद चलनेधर्मदास पारी 1३। धमी=मालिक, परमात्मा। जगती =कर उगाहने वाले कर्स चारी। सुक्रित =संभवत: कबीर साहब का ‘सुकृतनाम । विषम स्थिति (३) पिया बिना मोहि नोक न लाई गांव टेक। चलते चलत सोरे चरन दुखित है, आखिर परिये घूर ५१। आगे चलू पंथ नह सू, पाछे पहु न पांव ।२॥ ससुर जाऊं पिया नह चीन, नैहर जात लजार्ड 1३। इहां मोर व उहां मोर पाहो, बीधे अमरपुर धाम ।४। धरमदास बिनय करजोरीतहां गांव ना ठांव ५५। नीक ... गांव==संसार में अब हरा करना पसंद नहीं। असिन , घूर =बुद्धि कुंठित हो गई। चलत-चलत=आवागमन क के कारण है । आगे . . सूद सब कुछ रहस्यमय ही प्रतीत होता है। पांडे .. पांव==लौटना अब भला नहीं जान पड़ता। ससुर.. .चीन्है =विश्वास नहीं होता कि परमात्मा मुझे अंगीकार कर लेगा। मैहर . . . लजार्ड =लौट कर स्थामे हुए स्थान को ही अा जाना लज्जास्पद है । पाही=द्र को खेतीअपरिचित स्थान में को गई चेष्टा : तहां अमरत्व की दशा में । अंतसाधना (४) झरि ला महलिया, गगन घहरराय ।टकीं। खन गरज वन चिह्न ली चमके, सहर उठे सभा बरनि न जाय 1१। सुन महल से अमृत बर,