प्रयुग () २८३ पड़ता है कि उस समय तक इनका विवाह हो चुका था और ये गाई स्थ्य-जीवन में लीभाँति प्रवेश कर चुके थे । उक्त सभर में रहते समय ही इन्हें दो पुत्र उत्पन्न हुए जिन्हें गरीबदास और मिस्कोन दास कहा जाता है । इनके परिवार का पालनपोषण संभवतः इनकी पैतृक जीविका अर्थात् बुनियगिरी से ही चलता थ और ये एक साधारण गृहम्य का जीवन व्यतीत करते थे । फिर भी इनका अधिक समय देश स, सत्संग तथा सर्वसाधारण को उपदेश देने में ही बीता और ये कुछ ही दिनों में प्रसिद्ध हो चले फलतः सांभर का परित्याग कर आमेर में रहते समय इन्हें अकवर वादशाह ने आध्यात्मिक चर्चा के लिए सिक्री में बुला भेज और संस्० १६४३ में, किसी समय उसके साथ इनका मसंग ४० दिनों तक चला। संत दादू दयाल की पढ़ाईलिखाई के संबंध में हमें कुछ भी विदित नहीं । परन्तु इस प्रकार का अनुमान करना कुछ अनुचित नहीं कहा जायगा कि इनकी आध्यात्मिक अनुभूति बड़ी गहरी और सदी थी तथा उसे व्यक्त करने की भाषा के प्रयोग में भी ये निपुण थे ! इन्होंने अपनी वानियों की रचना का आरंभ कदाचित् सांभर में ही कर दिया थथा । पर आमेर । में रहकर इन्होंने उस ओर और भी अधिक ध्यान दिया और वहीं से इनके शिष्य :रा उनका प्रचार भी होने लगा ने आमेर से आकर नारों में रहते समय जब इनका देहांत हो गया तो इनके शिष्यों ने इनकी विविध रचनाओं को संग्रहीत करना भी उचित समझा , तदनुसार अंदास तथा जगन्नाथ दास ने उनका एक संग्रह हड़वाणी' के से प्रस्तुत किया और उसमें पायी जाने नाम वाली कतिपय त्रुटियों को दूर कर इनके प्रमुख शिष्य रज्जबजी ने एक अन्य संग्रह ‘अंगबंधु' नाम से प्रचलित कर दिया । 'अंगबंधु' में इनकी सारी उपलब्ध रचनाओं को वर्गीकरण करके संगृहीत किया गया था।
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