पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२९७

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२६४ संत-काव्य , और बही आगे के सभी संग्रहों का आदर्श बन गया । इस समय दादू दयाल की रचनाओं के प्रधान प्रकाशित संग्रहों में पं० सुधाकर द्विवेदी, राय दलगंजन सिंह, पं चंद्रिका प्र प्रसाद त्रिपाठी तथा बा७ बालेश्वरी प्रसाद बेनेडियर प्रेस, प्रयाग) के संस्करण अधिक प्रसिद्ध है और उनमें भी त्रिपाठी जी का कदाचित् सब से अधिक प्रामाणिक है । इसमें ३७ अंगों में विभाजित सादियों की संख्या २६५८ है । और पदों की संख्या२७ रागों के अनुसार, ४४५ है । पदों एवं साखियों के अतिरिक्त दादू दयाल की एक अन्य रचना 'काया वेरि’ के नाम से भी प्रसिद्ध है जो संभवतः उनके पद संख्या ३५७ से लेकर ३६४ का ही एक पृथक संकलन मात्र है । इन रचनाओं में न केवल इनके सिद्धांतों एवं साधनाओं का ही परिचय मिलता है प्रत्युत उनके एक-एक शब्द से इनके उस संत हृदय का भी स्पष्ट पता चल जाता है जिसका क्रमिक विकास, इनके शुद्ध साविक जीवन के साधारण दैनिक व्यवहारों के बीच में ही, हुआ T होगा। अपनी नम्रता, क्षमा शीलता, एवं कोमलहृदयता के कारण ये केवल दादू से दादू ‘दयाल' कहलाने लगे थे और सर्वव्यापक परमात्मतत्त्व के प्रति इनकी अवि च्छिन्न विरहासक्ति ने इन्हें प्रमोन्मत्त सा बना दिया था । इनके असाधारण व्यक्तित्व का प्रभाव बहुत गहरा पड़ा करता था बोर जो कोई भी इनके संपर्क में आता था वह इनका सदा के लिए हो जाता था । इनकी रचनाओं की भाषा मुख्यतः राजस्थानी है, परंतु उनमें गुजराती, सिंधी, पंजाबी, मराठी, फ़ारसी, आदि के भी उदाहरण मिलते हैं ! अनुमान होता है कि यह उनके देशाटन और सत्संग के कारण संभव हुआ होगा। संत दादू दयाल द्वारा प्रवर्तित दादूपंथ के अनुयायी इस समय एक अच्छी संख्या में विद्यमान है और इनकी कृतियों का भी स्थान संत-साहित्य में बहुत ऊंचा है ।