पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३०

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साथ-साथ पौराणिक गाथाओं की सृष्टि; अलौकिक प्रदेशों की कल्पना, भक्तमालों की रचना तथा अपने-अपने श्रेष्ठ ग्रंथों की पूजा भी इस काल से आरंभ हो गई। कुछ संत एक प्रकार के अवतारवाद को अपनाकर अपने को पूर्वकालीन संतों का प्रतिरूप वा भविष्य कालीन सुधारक अर्थात् मसीहा तक भी घोषित करने लगे। इस युग में एक विशेष बात यह भी दीख पड़ी कि उक्त संप्रदायों में से एकाध ने दिल्ली के तत्कालीन शासकों के विरुद्ध विद्रोह का झंडा उठाया। सतनामी संप्रदाय के अनुयायियों ने इसी युग में सर्वश्रा औरंगजेब (मृ॰ सं॰ १७६४) के शासन के विरुद्ध सं॰ १७२९ में विद्रोह किया और गुरु नानकदेव के अनुयायी सिखों ने अपने नवें गुरु गोबिंद सिंह (सं॰ १७२३-१७६५) के नेतृत्व में उसके साम्राज्य के विरुद्ध 'खालसा' वीरों के रूप में डटकर लोहा लिया।

परन्तु संत-परंपरा के अंतर्गत उक्त प्रकार की सांप्रदायिक मनोवृत्तियों का जाग उठना, आगे चलकर उसके लिए अहितकर सिद्ध हुआ। भिन्न-भिन्न वर्गों के अनुयायियों का अपने पंथ विशेष के प्रति पक्षपात का होता जाना स्वाभाविक था जिस कारण उनमें रूढ़िवादिता एवं संकीर्णता आ गई। वे एक दूसरे को नितांत पृथक् तथा भिन्न समझने लगे। इन संप्रदायों के अनुयायी अपने मूलप्रवर्तकों एवं प्रमुख संतों को, राम, कृष्ण, बुद्ध आदि की भांति, देवत्व का स्थान देने लगे। उनकी अर्चना होने लगी। उनका स्तुति-गान आरंभ हो गया। उनके संगृहोत उपदेश ग्रंथों तक को गुरुवत् गौरव प्रदान किया जाने लगा । उनके चित्रों वा समाधियों की पूजा उनका एक महत्वपूर्ण कर्त्तव्य बन गई। उनके सम्मान में किये गए मेलों में प्रचलित पर्वों एवं -तीर्थों का सा चमत्कार आ गया। उनके जीवन की साधारण सी घटनाओं पर भी पौराणिकता का रंग चढ़ाकर बहुत सी पुस्तकें लिखी जाने लगीं और उनकी संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती गई। अपने-अपने