पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३०१

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९८। संत-काज्य। यह सब खेल षालिक हरि तेरातंहि एक कर लीनां ॥ दा जुगति जांनि करि ऐसीतब यह प्रांन पतना (४। संधि बंध =मार्मिक संबंध में मुष्ट -रहस्य (८) क्यों करि यह जग रच्य साईं, तेरे कान विनोद वन्यौ सन मांहीं।टक।। के तुम्ह छापा परगट करणांके यह रचिले जीव उधरनां ५१। है यह तुमक सेबग जांगे, है यदु रचिले मन सां) ।२। के यह तुमक सेबग भवेके यह रजिले खेल दिखावे ।३।

  • यह तुमक खेल वियातहै यहु भार्च कॉन्ह पसारा 1४।

यह सब दादू अक्थ कहांनो, कहि समझाव सारंग पानो ।५। हैरान (e) थ कित भयी मन कहो न जाई, सहजि समाधि रह ल्य लाई ठेक। के कुछ कहिये सोवि बिचाराम्यांम नगोचर अगम अपारा।१। साइर गेंद कैसे करि तोलेआप अबोल कहा कहि बोले ।२१। अनल पंप परे परि दूरि, औमें राम रहीं भरपूरि १३ इन मन मेरा औई रे भाई, दादू कहिब कह न जाई ॥४। साइर=सागर, समुद्र से तोले =किस प्रकार तुलना करे। अनल पंषि ...टूरि=अलल पक्षो कितना हूं उड़ उसे अकाश का पूरा पता नहीं चल सकता। सच्चा भक्त (१०) न रार्ष यूंहीं रहे तेई जन तेरा तुम्ह बिन औौर न जांनही, सो सेवग नेरा ।टेका। अंबर श्राeही धरचा, अजहू उपगारी। धरती धारी अपर्यसबहों सुघकारी ॥१॥ ।