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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३०२

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ममुग () २८ & बच्चन पास पद के चौ, ज़म तुम कीन्हां! पांनी परगट देहूिं, सब स* रहें भीनां १२है। चंद चिराको यह दिखा संद सीतल जलें । सुर भी सेवा करें, जै मैं भल संभे 1३है। ये निह से धन तेरहे, सब अदा काये । सोको , बाहु यलिहारी ४। चिशक्षक-दिर, प्रोक्रशसार। अपना मत (११) भाई रे ऐसा पंथ हमारा ? है पष रहित पंथ गए , अबरण एक अधारा 1थे। बादबिंब श्द का ों नहीमांटूि जगत में न्यास । सम 5ी सुइ सद्भुज में आपहि आप बिचारा ५१। में हैं से ही यहू संत नाहों, निर्भरते मिरकारा में पूरण सवे देशज अपा परनिरालंब निधरा।२१ कालू के संगि मोह न मस्मिता, संगो सिरजनहारा । मनही मन सो समति सानां, आनंद एक अपारा ।३है। कांन कल्पन्नई कहे म को जज, पूर्ण ब्रह किया । हि पंथि पहुँकि पार गहि दाससो तत सहज संभारा /४। पद रहित =मध्य मार्ग का। मांट्रि =बीच में रहते हुए भो। अबर=अव, निर्गुण ? साखी। सतगुरु बालू सतगुर अंज वाहि करि, नैन पटल सब घोले । बहरे कान सुपने लागे, गूंगे मुख सी बोले ११। १६