पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३०५

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२७९ संत-। मुरग्रहण दादू गऊ बच्ष का ज्ञान गहि, रहे ख्यौ लाई । सोंग पूंछ पंस रहई, अस्थम लागत धाइ क२२॥ बाद एक घोड़े चढ़ चौ, ईज कोलिल होइ । दुड घो बढ़ि , परि न पहुंा कोइ २३। अस्थद=:हैरून । श्रम तथा नरह अवना को नादस, नैनी रते रूप में जिवा राप्ती स्वाद सौं, दादू एक अनूप २४। दादू इसक अल्लाह का, छे कबहूं प्रगई श्राइ । तो तन मन विल अरवाह का, सब पड़दा जलि जाइ ।।२५)। साहिब साँ कुछ बल नहींजिनि हट सार्थ कोइ । दादू पोर्ट पुजारिये, तां होझ सो होझ है२६। पहिली अगम विरह का, पीछे प्रति प्रशास। प्रेम मन लैलीन मनतहां मिलने की आस 1२७।। नही सहै दूरण, रोवे मन ही मांट्रि । अन हों महें धाह दे, दादू बाहरि नांfह १२८है। दादू बिरह जगाई दर की, दरद जगाई जीब । जीव जार्ज सुरति क, पंच पुकारे पव ३२६॥ प्रोति मेरे पीब की पैठी पिचर सहि ? रोम रोम विव पिव कर, दादू दूसर नfह 1३०। बिरह प्रगनि में जलि गये, उनके विवे विकार । ताथे पल ले रह्य, बालू दरि दीदार 1३१। जे हम छांडे रामक, तौ रास न छहै। दादू अमली अमल थे, मन वठे करि काई 1३२। राम बिरहनी है रलाविरहनि स्र गई राम । ' । दादू बिस्हा वापुराभैसे करि गया काम ५३३॥