संध्युप () २६५ उनैोग का कारण नहीं बनता। गू=गुह्य बा गुप्त रखना। प्रेम पियाला रामरस, हमक भावे यह। रिचिव तिथि मांगें कत्ल फलचहें तिनक वेह ५३५। तन भी तेरा मन भी तेरातेरा ध्ड पंरान । सब कुछ तेरा तू है मेररा, यह बाढ़ का ज्ञान ५४ साउ बालू निराकार नन सुरति सौं, प्रेम प्रीति साँ सेब । जे पूजे अकारक, तौ सा प्रतदि देव 1५५' बाद फिरता वाक कुंभारका, यूं दीसे संसार। साधू जन निहचल ,जिनके राम अधार ५६। विय का अंगत करि लिया, पावक का पणी । बांक्षा सूधा कर लिया, जो साध बिनांणी १५७। दादू करणी हिंदू सुरक की, अपर्णो अपषी दौर । दुहूं बिच मारग साथ का, यह संतों की रह और ५५८ । का उछले , काया हांडी साहि । दादू पका मिलि रहै, जोव ब्रह्म है नाह 1५६ । प्रतषियक्ष । विनांसीण =विज्ञानीउत्तम। आय नसा के एक़बान सौं, भैयाँ पेट भरावै । ज्यों कहेय त्य कोजियेतबही बनि अब 1६०। दादू तो पाई पीव क, पापा कलू न आान । आपा जिसमें उपजेसोई सहज पिछाम 1६१। बाढ़ सीटें प्रेम न पाइयेसीटें प्रीति न होइ । सोनू दर्द न अपजेजब लग आप न षइ १६३
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