संप्रदायों की गणना अब वे लोग भी क्रमशः अन्य प्रचलित धर्मों के संप्रदायों की भांति ही करते थे। उनमें विविध बाह्यचारों तथा कल्पित गाथाओं की सृष्टि होती जाती थी जिसका एक परिणाम यह हुआ कि जिन बातों को दूर कर एक शुद्ध एवं सात्विक धर्म की प्रतिष्ठा का उद्देश्य पहले उनके सामने रखा गया था वे उनमें फिर भी प्रवेश करने लगीं और उनका वास्तविक आदर्श उनकी दृष्टियों से ओझल हो गया। अब संतमत एवं अन्य संप्रदायों की मान्यताओं में विशेष अंतर नहीं रह गया, फलतः उच्च स्तर के संत ऐसी प्रतिकूल भावना की कभी-कभी आलोचना तक करने लगे और कोई-कोई इस पतनोन्मुख प्रवाह की रोक-थाम के लिए कटिबद्ध भी हो गए।
विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी के लगभग प्रथम चरण से ही यहाँ पर अंग्रेजों की सत्ता जमने लगी थी। पाश्चात्य ढंग की शिक्षा तथा विदेशी साहित्य के अधिकाधिक अध्ययन के कारण, विचारशील भारतीयों में आत्म-निरीक्षण एवं पुनरुद्धार की भावना जागृत हो चुकी थी। विदेशी विद्वानों ने जिस ढंग से हमारे साहित्य, कला एवं संस्कृति का का अनुसंधान आरंभ किया था उसका अनुकरण अब यहाँ के लोग भी करने लगे थे। पाश्चात्य सभ्यता के आलोक में सभी बातों का मूल्यांकन करते हुए वे उनकी प्राचीन बातों की नवीन व्याख्या करने में भी संलग्न थे। तदनुसार संत-परंपरा के एकाध संतों ने भी ऐसे प्रयत्न आरंभ किये। वे पुराने संत जैसे कबीर साहब, गुरु नानकदेव एवं दादूदयाल आदि की अनेक बातों पर अपनी टिप्पणी कर उनके अनुयायियों को सचेत करने लगे थे। संत तुलसी साहब (मृ॰ सं॰ १८९९) तथा राधास्वामी सत्संग के तृतीय गुरु ब्रह्मशंकर मिश्र (सं॰ १९१८-१९६४) ने ऐसे प्रसंगों की बुद्धिवादी एवं वैज्ञानिक व्याख्या कर संतमत का औचित्य एवं महत्व दर्शाया। कबीर पंथ के रामरहसदास (मृ॰ सं॰ १८६६) तथा दादू पंथ के साधू निश्चलदास (मृ॰ सं॰ १९२०) ने अपने-