दादू चीरासी लय जीवकी, परकीरति घट मांंहिं।
अनेक जन्म दिन के करै, कोई जायै नाहिं॥७१॥
जीव जन्म जायै नहीं, पलक पलक में होइ।
चौरासी लष भोगवै, दादू लषै न कोइ॥७२॥
परकीरति= प्रकृति, स्वभाव। दिन= प्रतिदिन निरंतर।
आषा मेटै हरि भजै, तन मन तजै बिकार।
निर्वेरी सब जीव सौं, दादु यहु मत सार॥७३॥
तन...विकार= आत्म शुद्धि कर ले।
माया विषै विकार थैं, मेरा मन भागै।
सोई कोजै सांइयां, तूं मीठा लगै॥७४॥
जे साहिबा कूं भवै नहीं, सो हसथैं जिनि होइ।
सतगुर लाजैं आपणा, साव बन मानै कोइ॥७५॥
तूं मीठा लागै= तेरे प्रति अनुरक्ति सदा बनी रहे।
गुरु अर्जुनदेव चौथे सिखगुरु रामदास के पुत्र थे और इनका जन्म वैशाख बदि ७ सं० १६२० को अपने नाना गुरु अमरदास के घर हुआ था। गुरु अमरदास इन्हें बहुत प्यार करते थे और ये पहले बच पन में सदा उन्हीं के यहां रहते रहे । उनकी मृत्यु के अनंतर अपने पिता के साथ रहने लगे। गुरु अर्जुनदेव के दो भाइयों को इनका अपने पिता का उत्तराधिकारी बनना बहुत खला और वे इनकी उन्नति में