सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२88 मध्ययुग (वर्क्स) १६६१ में तथ्यार किया था , गुरु अर्जुनदेव की रचनाएं उक्त ग्रंथ के अंतर्गतसंख्या में सबसे अधिक हैं अर वे महल’ ५ के नीचे भिन्नभिन्न रागों संलोकों, छतों आदि में आई है । उनमें इनकी सत्य- निष्ठा, निरभिमानिता, भगवदुक्ति और विश्वम के भाव प्राय: सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं । इनके मात्रों की अभिव्यक्ति में गुरु नानक देव से कहीं अधिक स्पष्टता तथा संरलता है और उनकी अपेक्षा इनमें पंजाबीपन का भी प्रभाव बहुत कम दीख पड़ता है । इनकी 'सु खननी' एक बहुत उच्चकोटि की रचना है और सिख़लोग उसे प्राथ : वही स्थान देश है जो गुरु नानक देव के जमुजी' को दिया जाता है। पर वही सब कुछ (१) आापे , बिसयारी साख से अपनी खेती नाये राष के से १। जत कत पेयड एक ही । घट घट अंतरि आये सोइ ।रहा।। अपे सूरु किरण विसथारे सोई गुपतु सोई प्रकार १२॥ सरगुण निरगुण थापे ताउ । कुल मिलि एक कीनो ठाउ । ३।। कहू मानव गरि भ्रम भड घोइय। अनद रूयु सम्र नैन अलोइआर (I४। विसथारीफलाया है। राष =रखवाली करता है। अलोइआर अवलोकन कर लिया। भड बोथा= भय दूर कर दिया अथवा भवजनित श्रम का निराकरण कर दिया। सभी में व्याप्त (२) सगल बनसपति अहि बैसंतर, संगल दूधु सहि घीया । ऊंच नीच महि जोति समाणी, घटि घटि माधउ जोन 1१। संतह घटि घटि रहिआ समाहिए। पूरन पूरि रहिंद सरब महि, जलथल रमईआा अहिंड गेरहाउ।