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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३१४

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अयपुर () ३०१ टू जलतथि ढूं फ् दबुदा, सुधु बिनु अवरु म भाली जीड ।। , सूत मगोप भी तू है ' टू गठो मेरा सिदिर है । आदि मथि अंति प्रभु सोई, अरु न कोई विलोके जोड १२। > निरगुण सरगुण सुशदाता । हूं निरवाणु रसीना रंगिराता। अयों करतब आये ज'हिं, अ ये तुधु समाली जीज 1३। ठाकुरु सेवकु कृमि प्रायें । टू गुपए परगटु प्रभ अपे। नानक्ष बासु दा गुण , इक भी नदर निहाली जड 1४। . . .असलो= हो सूक्ष्म से स्यूल भी हो गया दीखता है । शाली =देखा जाता है । अपे..जीड =ते ही अपना आप आधार है। सी. .. जध ==अपनी सरल चितवन से सुसे देखिए। मेरे एक मात्र इष्टदेव (६) प्ता जी ने मेरे नाम अधारे । सकार डंति वंदना, अभिक बार आठ बारे 'राउड उ5 वें संवत जागाइडु मनु तुहि चिताएं । सू के दुष इसु मनकी विरथा, तुझही श्राप साईं 1१। तू मे रो ओोट बस वुव बन तुम्हो मुसह मेरी परवाएं। जो तुम करहु ई मेल , पेणि नानक सुब चच राधे है।२। बिनाए= र-बार स्मरण करता है। सारंधिकृत करता है । बिरथा =वद्यथा। अट=सहारापरबार परिवार वा प्रतिपाल। तैराही सब कुछ (७) से नाही प्रभ सभ किछु तेरा । ईध निरशुन ऊधे सरगुन, केल करत विचि सुनामी मेरा ।रहा। । नगर सहि आदि बहरि कुनि अपनप्रभ मेरे को संगल बसेरा । अपेही राजन आये ही राइशा, कह कह ठाकुर कह कंह चेरा 1१। काकज दुराड कासिड बल बंचा, जह जह पेषड तह तहू नेरा ।