पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३१७

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३०४ संकाय महानाब कुरंक मोहिऊबेधि तीन सरी। प्रभ चन्न कमल रसाल नामक, ठ बtधि बरी है२है। टे व =अक्षत, लत: सीसर, तीर। निरह (१४) मेरा संतु लोचे हुए दरसन ताई। विलप करे चात्रि की निश्चाई है। त्रिशा न उतरे सांति न आये , बिन्दु दरसन संत पिआरे जीड 1१r हज घोली जीज घोलि घुमाई, गुर बरसन संत पिजरे जीड ।रहड। तेरा मु सुहावा जो सहज बुनि बापी। चिरु होआ देखे सारंगपाणी। घंतु सुदेस जहां बसिया, सेरा सजणा सीत मुरारे जीड ।२॥ हद घोली हड घोलि घुमाई , गुरसजणा मोत मुरारे जीड ।रहा। इक घड़ी न मिलते ता कलि जुगु होता है हुषि कदि मिलो शिअतुछ भगता। 'मोहि ऐणि न बिह-वं नीद न आादबिनु ये गुर दरबारे जड ।३। हज घोली जिह घोलि ध माई, तिस सचे गुर दरबारे जीड रहा। भागु होअर गुरि संतु मिलाइया। प्रभु आबिनासी घर महि पाइआ। सेव करी पतु चसा न बिछुड़ा, जो नानक दार मारे जीड १४है। हद घोलो जीड घोलि घुमाई, जन नानक दास समारे जीड ।रहा है। लोर्च =उत्सुक हो रहा है। ताई=के लिए। हुछ धोली . .. घुमाई =में उसी में घुलमिल गया हूं। चिरु ==बहुत समय। णि =हो जाय । चसा =तनिक भी। सर्वस्व जूही (१५) सत द सूरति कड बलि जाड। ' अंतरि पिग्रास चात्रिक जिड जल की, सफल दरतनु कदि पांउ ।रहाउ। अनाथा को नाथु सरव प्रतिपालकुछ, भरति बंछ हरि नां। जाकउ कोइ न राष प्राणी, तिसू तू देहि आसराड १।