पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३१८

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मथुरा (पूर्वार्द्ध ३ ०५ निधरिया धनि गति अगति, निथाविक तू थर्ड । दहदिस जब तहां तू सं, तेरी कीति करम कमाड।२८। एक सु ने लश्द लाष ने , मेरी गति निवि कहि न सकाउ। न वेआंदु हरी मिति नहीं पाई , सने तेरे घरेलू बिषाउ ने ३।। सायम का संगु साथ सिड , हरि साधन सिख लित्र लाई । ट जम नानक पाइआर है गुर मति, हरि देड्डू बरसु मनि चाड है।४१५ अखण्ड आश्रय । मैथरिना निराधार के लिए। अगति - :शरणान्म के लिए । निथबिना निराधार के लिए। करम -- अनुग्रह । वेलु -लीलर । मनि चाड मन में उत्सुकता है । मतदान (१६) सभफिलू घर सहि बाहरि नही । बाहरि टोले सो भरमि भुलाहो। गुर ५१तादी जिनी अंतर पाइनासो अंतरि बाहरि सुहेला जड ।५१। भिभि दिमि बरतें अंत्रित बस सनु पीई सुनि सबई वीचार। आंनद विनोद कर दिन राहीसबा सधा हफिला जज 1३। जनन जम का बि दड़िआ मिलिन, साध त्रिप से सू का हरिया। सुति पाए नाम थिएमएगुरुमूर्षि होए मेला जीज 1३। जल तरंग जिद्ध जल हि समाइआ। तिड जोतो संणि जोति मिलइश्रा । कछु नानक से कड़े किवाड़ा, बहुड़ेि न होइ जउला जीउ १४ हल -सुंदर। सू का ' हरिआ --- <खा रा हो उठा। किबाड़ा =बाधा, रक् जला =जात। स्थिरत की उपलब्धि (१७) अब औोसे नईचनो रहो। लाल रंगोला सह पाइड, सलिगुर बदनि सहो ।रहा। कुआर कनिम जैसे संगि सहे, शिव बचन उपहास कहते । जड़ रु रिजसू ग्निह भीतरि प्राइडतब मुर्घ काजि लजो ३१।