पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३०६ संरकावध जिज कनिक कोठारी चड़ि, कबसे होत फिरो। जबते सुध भए है बारह, तबते थान थिसे १२। जब बिनु रंनि तऊ लड बजिजमूरत घरी पलो। बजाधनहरो उर्डि सिधरिड, तब फिर बालू न भइड ।३॥ जैसे कुंभ उदक पूरिझाडि, तब मृह fमैन द्रितटो। कछु नानक ईंधु जल संहि अरज, आमैं अभ सिलो ।४है। रहो=बंद हो गया। कुआर निया =क्वारी कन्या। जज ... लजो=जब पति के घर अड़ जाती है तो लज्जा का अनुभव करने लगती है । जिद . . .थिो == जिस प्रकार सुधारे जाने के पहले प्रश्न यहांवहां घुमाफिराया जाता रहता है और शुरू से ही अपना स्थान ग्रहण कर लेता है । जैसे . . .द्रि सटो=जिस प्रकार घड़े में भरे जाने पर जल पृथक, जान पड़ता है। शत (१८) गुरु शुरु करने सदा , पाइआ। दोन दइन्न भए किरपालों, अपना नातु अपि जपाइआ। है।रहाड।। संल संगति भिलि भइन प्रगास। हरि हरि जयंत पूरन भई आास है१ सरब कलियुण सूष मनि छठे । हरि चुण गाए गुरु नानक तूठे ।२। स व =सुछ। बूढ़े=बरसे। तूठे =तुष्ट हुए। हरिजन (१६) उदए करत होवे मनु निरमलु, मार्च प्राथु सिधारे। पंच जना ले बसमति राष, मन महि एककारे क१। तेरा अनु निरति करे गुन गई। रबाबू, पाबज ताल सुंघरू, अनहद संबद्ध बजायं ।रहा। प्रथमे मनु परव अपनापाछे अवर गझाव। रम नाम जपू हिरदे जासं, मुब के सगल सुनथे ।२॥