सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मध्ययुग () ३७७ ० कर संवि समयू चरन पठारे, संत यूरि तमि लावें । संतू, तनु, ग्ररपि धरे गुर असहूँसति पदारथ पर्व ।।३ । जो जो सुनै पेवे लाइ सरवt, वाका जनम मरण दुधु भार्ग । औसो निरति मरक लिवा, नानक गुमृषि जरनै ।।४! नाये . . . निवारे =प्रपंच स्वयं छोड़ देता है।एकाएक ऑोंकार म।न । श्रादें - = लने पहुंचाता है । अंजुना रहना बिमर गई सभ सात्ति पराई' जब साध संगति मोहि पाई !रहाउड। ! ना को बंद नहीं बिगान, समूल संकि हम कई बनिभाई १११ जो प्रभ कोनडे सो भल मांकि उ, एइ सुमति सधू से पाई ।२? सभ महि रवि रहिछा आ ए, ईश्व पेषि संानक बिगसई है।३। ताति == अपनो। ई बरसाई =प्रफुल्लित हो रहा है ? छत (बंद ) अनो घणमैं सो प्रभु डीठ: रम। वाशि चावड़ा में रिश्दुनीश रस । हरि एस मीठा संर सहि टू की सतगुरु नृष्ठ सहजू भइयां। प्रिह वनि आइप्रा संग गइयापंच दुसह उइ भाग गइआर । सीताल अब अंतिम दो साजन संत बसरठथे। बहु नक्ष हरि सिड मन , सानिया, सो प्रभु णी डोटा ।।१। सो हियडू से हिचड़े रे बंक दुआरे रस । पाहुन्हें पाहुनड़े में संत पिंजरे रम। संत पिथारे कास्ज सारे नसमकार कर लहे से वाह। आाये जांई आपे सांई अपि सुझसी अपि देखा। अपष्पक्ष कार अपि संथारे अप धारन धारे । कहू नानक सहू घर महूि बैठा सोहे बंक हुआर 1२ नवनिधन उमिर्थी मेरे घर आई राम।