सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३० ८ संतकाय स, किछु से सg किवू प्राइश ना विश्राई रम। ना विश्नाई सदा सथाई संदृज सु भाई गोविंदा। गणत मिठाई चूकी पाई कर्वे न बिछापे मन चिदा। गोबद गाजे अनहद बाज़े, अचरज सोभ बई कछु नानक पितृ मेरे संगे, तामे नबनिधि याई 1३। सर सिमड़े सरसअड़े मेरे भाई सभ मोता राम। विषमो विष अवाड़ा , मुर मिल जीता राम। गुर सिनि जाता हरि हरि कोत, नृदी भोता भरमराड़ा। पाइना जाना बहुतु निधाना, साणथ मेरी प्रापि पड़ा। सोई सुगिनाना सो परवाना, जो प्रभि अपना कीता। कछु नानक जांवलि स्वामी, तां सरसे भाई मोता ।।४! घ माह में =(असिद) में से सतले . . . वसोठा =शोतलता अचाने तथा अमृत की अनुभव कराने के फैलए संतजन परमात्मा के प्रतिनिधि स्वरूप । जाई=पुत्री। सहु =बहो । सपाई मित्र व सहायक। द गत =लेखे-जोखा ।वक्रो =मुक्ति । चिका=चिता । सरसिअड़े-=जलाशय अर्थात् इस जगत के अंतर्गत। भीता =सणथ=सांनिध्य में निकट। व्ांबलिटजरता है, पहुंच पाता है । साखी। मानक सोई दिन सुहावड़ा, जितु श्रमि 'वं चिति। जितु दिमि बिसरे पारोह , फिई भलेरी रुतिn१। अंतरि बिता नैनो सुषो, मूलि न उतरे भूष। नानक सचे नाम बि, किसे न लखो दुष १२। । इ9 सजणु सभि सज्जणा, इड कैरी संभ वादि। गुरु पूरे बेषालिआराबिणु नाव संभ बादि 1३। ने अंतरि लोधा मिलण की, किउ पवा प्रभ तोहैि । कोई औससज लोडिलहूं, जो मेले प्रीत मोहि ४।