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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३२३

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३१० संत-काठप से मांभर में ही दीक्षा ली थी। उनके जन्मकाल का संवत् माह मो और सौलह सौ दल के बीःत्र, होना अनुमान किया जाता है जिस कारण वे दादूजी के समवयस्क में जान पड़ते । है। उनकी जाति के विषय में कुछ मतभेद है, किंतु अधिक लोग उसे ' रानी' बा ‘मीगसीकहने के पक्ष में हैं : वे गहस्थ रूप में रहा करते थे और उनका देहांत भी इसी दशा में, दादूजी की मृत्यु के कुछ दिनों पीछेविक्रम की १७वीं शताब्दी के अंतिम चरण में किसी समय हुआ था। । व नाजी दाजी के प्रमुख शिष्यों में गिने जाते हैं और उनकी प्रशंसा ‘भक्तमालकार राघोदाम में भी की । है । वे एक सच्चे हृदय के प्रेमी व्यदिन और गायक भी थे । उनकी रचनाओं का एक संग्रह वषनाजी की वाणी नाम से जयपुर के ‘श्री लक्ष्मीराम ट्रस्ट ' द्वा प्रकाशित है । इसमें उनके १६७ पदों के अतिरिक्त ४० अंगों में विभाजित की हुई, अनेक साखियां भी संग्रहीत है जिनमें उनका सतगुरु एवं परमात्मा के प्रति एकांत प्रेम , सत्य के प्रति पूर्णनिप्ठा, जगत् की ओर से अनासक्ति तथा दय की सरलता स्पष्ट लक्षित होती है । उनकी बानियों में साहित्यिक मौंदर्य अधिक नहीं बोलता फिर भी उनको सुंदर वर्णनशैली के कारण, उनकी कई एक रचनाएं मूक्तियों सी बन गई हैं । उनकी कर पंक्तियों को पढ़ते समय क्बोर का स्मरण हो आता है । पद हृदय की कठोरता (१) हिरबो बडो कठोर कोटि कियां भोजे नहींऐसो पाहण नांहो और ।टक। गंगा न गोदावरी हायो, कासी । पुहकर सह रे ।। कर्म कायर्ड मैण को, ताधे रोम भीगो नांहि रे ॥१। बेद न आगोत सुनिया, कथा सुणो अनेक रे ॥ फर्म पायर सारिया, ताधे वाण न लागे एक रे हैं। "