पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३२४

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मध्रप्ग पूर्वी ३११ औधा कलसा ऊप, जल बो अखंडबार तत बेला निहालिया, तो पार्टी नहीं लगार ।३। वनड़ अगनि पाषाण जाल्यादूना कीया सलेस रे ॥ बना जिया राभरसम्हारा सतगुर ने आदेस रे ५४। मैकको मोम का बना हुआ, चिकना। पाषर=कदवपनाह। बूटो-बरस गया बार बरसता रहा। ततबेला निहालियो=-आबकता पड़ने पर प्रयास काम के के समय जब उसे संभाल कर देखा। स ले पायदार बढ़। (टि यों देखा जाय तो पत्थर पानी में भलीभांति नहीं भीगा करता, किंड़ यदि उसे आग में जला दिया जाय तो वह ‘क्लो' का रूप प्रहण कर लेता है और तब कठिनाई नहीं पड़ती है इसी प्रकार सतगुरु के उपदेश द्वारा कठोर से कठोर हृदय भी अपना स्वभाव छोड़कर रामरस' में भीग जाता है । इस विषय पर बषनाजी की एक साथी भी प्रसिद्ध है ) । विरह (२) विवाद अंतसे , हरि हम भागते नहि ॥ को जार्ग कद भाजसी, स्हारे पछतो मन सहि टेकहै। नाडा डूगर बन बमो, नदियां बह अनस ।॥ सो पंडियां पंजर नहीं, ह हों मिल सिल आ नित १। देरणा पार्ष चालिबोरे, धरती पाई बाट है परबत पार्टी , विषम प्रधठ घाट 14२है। जाता जाता छोहा, म्हारे मन पछितरे होइ ॥ जीवत मे लो हे संघी, चूंबा न मिलिसी कोइ 1३। हरि दरसन्न कारण है सबो, म्हरा नैन रह जल रिए सो साजन अलगा हुा, भ्वें भारी घर टूरि ।।४। पाती प्यास पब की, हूं क्यों बाघों का लेख । बिरह महाधन ऊतडयोम्हारो नैन न बावण दे।५।