को प्रमाणित में कर चुका हो। संत कबीर साहब ने अपने विषय में चर्चा करते हुए एक स्थल पर कहा है,
"सत गुर तत कह बिचार, मूल गह्यौ अनभै विस्तार।।"[१]
अर्थात् सतगुरु ने तत्व के विषय में विचार कर मुझे बतला दिया वा उसकी ओर संकेत कर दिया और मैंने उस मूल वस्तु को अपने निजी अनुभव के अनुसार ग्रहण कर लिया। वे दूसरों के लिए भी यही निश्चय करते हुए जान पड़ते हैं। इसी संबंध में वे एक अन्य पद में इस प्रकार भी कहते हैं,
"रांम नांम सब कोई बखानै, रांम नांम का मरस न जांनै॥"
ऊपर की मोहि बात न भावै, देखे गावै तो सुख पावे।
कहै कबीर कछु कहत न आवै, परचै बिनां मरम को पावें॥"[२]
अर्थात् रामनाम की चर्चा करने वाले सभी लोग उसके रहस्य को नहीं जानते। इसलिए मुझे ऊपर ही ऊपर से बात कर देने वालों की बात नहीं जँचती। उसका सुख वही प्राप्त कर सकता है जो उसका स्मरण, उसे स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव कर लेने पर ही करता हो। यह बात केवल कहने-सुनने की नहीं है। इसके रहस्य को बिना इसका परिचय प्राप्त किये कोई भी नहीं जान पाता। स्वामी रामतीर्थ ने भी एक बार लगभग ऐसे ही प्रसंग से कहा था "सत्य को सत्य तुम केवल इसीलिए मत समझो कि उसे कृष्ण, बुद्ध अथवा ईसा मसीह ने कहा है। उसे अपने निजी अनुभव की कसौटी पर परख कर भी देख लो।" सत्य का केवल उतना ही अंश हमें काम देता है और हमारे जीवन का अंग भी बन सकता है जितने को हम वस्तुतः जानते हैं। वह जैसा है वैसा उसे पूर्णरूप से कदाचित् कोई भी नहीं जानता। उसके लिए