पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३३२

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मध्ययुग (पूर्वार्द्ध ३१ e. बारह मारण बढ़ता रक, तेरह ताली लावे रे । चन्द सूर सहवें सत रो, अहद देवेण बजाय रे ।१r तीन्यू ढ ण थे घर राखं, पांच पचीस समावे रे है। नऊ निरति यूं ओर बहत्तर, रम रस नेि धावे रे १२। नैल निर्मल दरे स्यान सी, सतगुरु कहि समझाबे रे । गरजेबदास अनों घर उपकें, तब जाइ जोति लखावे रे!१३। उलटी. . . चले अंतर्मुखी वृत्ति को साधना करता है। घर निक स्वरूप में है बारह . . . रोके कट्टियों के बारह मार्गों को संयत रखें। तेरह =सहस्रार में। चन्द . . . गाव =ईडा तथा पंगला नाड़ियों को सुपुर्माना में लगा दे । अणहद ऋण . . .रे=अनाहत नाद का अनुभव करे । चौथे ... रढ ==मिणि चैतन्य में स्थिर कर दे । पांच . . . समावै रे=पांच तत्व तथा पच्चीस प्रतियों को लीन कर दे। बहत्तर शहर के बहतर कोठों से. आत्मोपलब्ध (३) जब मन निरसे घर को पात्र है। तरा आास अनियास जगत को, आदि पुरुष राह गाबे टेर।. नाना रूप भांति बहु माथा, गुरु द्रष्टि पिछहैं । देषत जारी नहीं सो अथिर, साहिम हिरहे आा ।१॥ में पहुँचे ते अढ़ साषि सओउपचें बिनर्स माया ॥ केधल अह्म अ0ि ढ अस्थिरजोनी कष्ट न आया है।. सच विचार पुरुष करि, ठावा, तासों निज अंग पर है। गरीबदास बर सोई बरिये जु, दो गुण भाव में बर: ।३।" अनिया =अनायास ही । आनाएं -=ग्रहण करे ।ठावा = निश्चित, विश्वसनीय। परमामत: (४) भाई रे ! विरष अनूपम पाया। ताको सरण आय हम , तोन्यू ताप भुलाया 'टेर।।