पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मध्ययुग () हरिमुख का अनुभय (६) जो कबहूं सन हरि सुख जांओं, उनमनि लागि अगम अरि खेले देर सजेल सुख आदि व अर्ण है। इयों तरसूल पहल में पैरें, सब जल से ले जाय समावे । यूं मत सुरति निरसि निधि निरों, या सुख अटकि उलष्टि नह अवं ११। ज्ठे संत अनिल गगन कुंडू पलटे, ज्ञान प्रकाश पिता यख जोड़े । यूं फिरि जीब सीब संगि खेलेजन्म जन्म का कलिविख धोखे २है। सलिला गौड़ी करे तब यारी, समद समाय समद समि होगें । इन हरिदास अरस परस मिलि, हरिजन हरि प्रण समोबे १५३। । आदि =आथि, चिंतासच। तर ल=वृक्ष की जड़ । पहुमहमी, पृथ्वी परे-=फैलती है । सेंक दूर बहता हुआ भी। सुत अनल =अलल पक्षी का बच्चा 3 कलिबिख== किल्वियपातक। सलिता=नदी । गौड़ी. गोड़ी, लाभ का आयोजन । समद = ससु द्र। समोने=सन कर दे । अलना ' व जाति को भेद पणि सकल ऊपरि भयो, राम रंभि रंग्यो रंग भले रायो । दास कबीर जमलोक जारी नहीं, अल्ल रस पिके मस्तानि मातो । चोट चोट खिसि खेत चाल्यो नहीं, पांच परवल पिंसुन मारि लीय । अंकल की चोट जम चोट लाने नहीं, उलट का पुलट रस भला पीया ५१। खाध की चाल सुणि सकल संशय सिनटयो, कहो र यूं रह्यो कटु संक नाहों है। नानक अस विसवास बांध नहीं,