पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३३९

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३२६ सर-कब्यि रह पणि रहो रमि रन मांहीं । जल में कंवल णि नर भेद नहीं, जमत में भक्त ये रहे जूबा। जन हरिदास हरि संसद में बूद कबीर, समझ में गेंद मिलि ए हूं व ५२है पणि=परंतु फिर भी । परबल =प्रबल द पिचुन=पिशुन खल । जुबा=जुदा, पृथक् । कुंडलिया आठ पहर की उनमनी, आठ पहर की प्रीति । आठ पहर सनमुख सबायह साधू की रीति । यह साधू की रोति, एकरस लाशा जद । अगम पिंभाला झथि राम रस यावे पीछे है। जन हरिदास गोविंद भजि अनुभ असुर अरि अति । अाठ पहर को उनमनी अछे पहर की प्रीति 1१। कहा दिख और उलट ग्रापलू देख । लेकणि मसि कागद कहा लिखिए तहां भलेख ॥ लिलिए तहां अलेख सुत निर्मल करि ली । दिल कागइ करि पाक सुत लिखि लिखि ठिक दीर्क । हदास हरि सुमरतां संचर रहे न सेख । कहा दिख वे और हूं उलटि चापलू देख ।२। जागरे सोबो कहा अवधि घटे घटि वीर। कहो कहांलो रखिये फूटे भांडे मीर । फूटे भाड़े मीर गरकि गाफिल नर सोचे । भर्ज नहीं नगवंतवहड़ेि मलसू भेल धोद ॥ हीषॉस सुर मर असुर सब मछली जम कौर ? जामौरे सोवो कहा, अवधि घटे घटि बोर ५३।