भिन्न-भिन्न बातें सभी लोग अपने-अपने विचारानुसार गढ़ा करते हैं। इसीलिए कबीर साहब ने भी एक स्थल पर इस प्रकार कहा है,
"वो है तैसा वोही जांचें, ओही आहि, आहि नहि आनै॥"[१]
अर्थात् वह सत् वा राम जैसा है वैसा केवल उसीको विदित है। (हम तों केवल इतना ही कहेंगे कि) केवल उसी एकमात्र का अस्तित्व है, उसके अतिरिक्त कोई दूसरी वस्तु नहीं है। इसका अभिप्राय दूसरे शब्दों में यों भी प्रकट कर सकते हैं कि 'सत्य' का शाब्दिक अर्थ ही अस्तित्व का बोधक है और जो कुछ है वह इसी कारण उसीकी परिधि के अंतर्गत आ जाता है।
संत लोग दार्शनिक नहीं थे और न उन्होंने इसके लिए कभी दावा ही किया है। वे लोग धार्मिक व्यक्ति एवं साधक थे। परमतत्व के विषय में किसी बात का वैज्ञानिक ढंग से निरूपण करना अथवा तद्विषयक प्रत्येक प्रश्न की जाँच के लिए कोरे तर्क की कसौटी लिये फिरना उनका स्वभाव न था। उन्होंने उस वस्तु के अनेक नाम दिये हैं। उन्होंने उसे कभी 'राम' कहा है कभी 'रहीम कहा है, कभी ब्रह्म कहा है, कभी 'खुदा' कहा है और कभी-कभी उसे केवल 'परमपद' वा 'निर्वाण' जैसी स्थिति निदर्शक संज्ञा भी प्रदान की है। किन्तु उनके लिए सबसे प्रिय नाम केवल 'नाम' अथवा 'सत्' अर्थात सत्य मात्र ही है। इन दोनों को एक साथ मिलाकर वे कभी-कभी 'सत्तनाम' शब्द का प्रयोग करते हैं और उसे बहुत बड़ा महत्व भी देते हैं। इन दोनों शब्दों में से 'सत्' वा सत्य शब्द उस अस्तित्व का सूचक है जो संतों के अनुसार परमतत्व का बोधक माना जा सकता है और 'नाम' उस वस्तु के उस अंशविशेष की ओर संकेत करता है जो साधक के निजी अनुभव में आ चुका है। जो उसके दिए
- ↑ कबीर ग्रंथावली, पृष्ठ २४२।