पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३४०

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मध्यभ (पूर्वार्द्ध सव को सरबल देत है, अपणी अधिी प्रीति । साहब सरबस दिया, या कछु उल्टी रीति है। या कछ उल्टी वि जांति गुण गोविंद गहाई । सुन मंडल में बेसि सांच यूं सुरति लगाव थे। हदास आनंद भय, 8 टी सचे अनीति है। सबको सरजस देत है अवगी अपषी प्रीति 1४। संचर ==साथी या स्थान। बहोड़ेि ==बहुरि, फिर ई गरकि =मश्म होकर। कोर-=सइबर । वीर =भाई, सिन्न ? सब को सभी कोई । अविनाशेर आठों पहरअयों हिरद धारि । हरीदास निर्भ , निरमै बस्त विचार 4१। नव निरंजन निर्मला, भजत होय खो हो । इीदास जन यूं कहें, भूमिल पड़े मत कोय ।२ा। हरदास काटें , अपखां घर की लाथ। ज्यूं जात्या र हों जल्या, जलि बलि रहा समाय ५३। हरीदास अंतरि अगह बोपग एक अनूप। जोति उजाले खेलियेजहूँ छहडो न धूप 1४है। काया माया सूठ है, सांच न जाणो बर। कहि काकी भागी तृषामृगतृष्णा को मीर ५५। जंह आया तह अतरसे, करुणा सागर दूरि । हरीदास आया मियाहै हरि सधा हजूरि ।६। । नहि देबल जू वैरतरनहि देवलथू प्रीप्ति । नतम तजि गोबिन्द भरेंया साधों की रीति 1७है। लोक दिखावो मति कर, हरि देखें यू देख t । हरीदास हरि अगम है, पूरण बह्म अलेख AI८।