३२६ संत कश्य अंह ज्वाला सह जल नहीं, हरि तह मैं हूँ नाह । हीदास केहरि कुरंग, एके बनि न बसाह है।eहै। शीतल वृष्टि चकोर की, चन्द बस ता मोहि । हीझास ज्वाला धु रो, देखो दार्ज नाह 1१०है। निरर्भ बस्त ==निर्भयतत्व, परमात्मा । लयअग' द वल - मूतियों का मंदिर। चैरतर =शत्रुता कृसम =कृत्रिममूति। मैं हैं किसी प्रकार का भेद भाव। दाऊँ -दा, जलता। संत अनचंदन आनंदघन का नाम, उनकी दीक्षा के पहले, लाभानंद बा लाभ- बिजय था और वे जैनचमनुयायी थे । वे कहीं गुजरात प्रात वा राजस्थान की ओर के निवासी थे और उनके अंतिम दिन, जोधपुर राज्य के अंतर्गत बसे हुए, मेड़ता नगर में व्यतीत हुए थे जो मीरांवाई की जन्मभूमि है ? उनके जीवनवृत्त की बातों का पता नहीं चलता। । उनकी केवल दो रचनाएं उपलब्ध हैं जिनसे उनके समय का अनु सान किया जा सकता है । उनकी ‘आनबन चौबीसी' की कई पंक्तियां उनके पूर्ववर्ती प्रशस्तिकारों की रचनाओं में भी प्रायः ज्यों की त्यों, दीख पड़ती हैं जिस कारण उसकी रचना का समय, वैसे लेखकों में से सबसे अंतिम जिनराजसूरि (०१६७८) के अंनतर ठहरता है और स्वयं आनंदघन की भी प्रशस्ति के लिखने वाले यशोविजय (० १७४५) के जीवनकालानुसार यह विक्रम की १७ वीं शताब्दी के अंतिम चरण में, मान लिया जा सकता है । उनकी रचनाओं पर वैष्णव कवि सूरदास एवं मीरांबाई की रचनाशैली का भी प्रचुर प्रभाव लक्षित होता है । उनकी उक्त चवीसी' के एक टीकाकार शान विमल सुरि के उल्लेखों से यह भी जान पड़ता है कि उसके २२ स्तवनों में से अंतिम दो कदाचित् उनकी कृति नहीं है । इसी प्रकार उनकी रचना आनन्दघन बहोती' के उपलब्ध एक सौ ग्यारह पदों में संभवत:
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